सोमवार, 30 दिसंबर 2013

रिश्तों के पौधे

हम जब अपनों से झगड़ा करते हैं तो सिर्फ उसके अवगुण देखते हैं ,गुणों को भूल जाते हैं।  लिस्ट बनाने बैठेंगे तो उसके गुणों की या फेवर्स की लिस्ट लम्बी होगी , मगर हमें तो वही दुर्गुण दिखता है।  A few drops of yogurt curdles the milk or a single drop of poison is sufficient to deteriorate the substance. जब भी कोई गुस्सा करता है ,  तब उसके दिल में दुःख या कोई frustration होता है या फिर उसने ज़िन्दगी के मायने ही गलत उठा लिये हैं।  हम उसका दर्द समझने की बजाय उससे झगड़ा करने लगते हैं।  पैसा ज़िन्दगी को आसान बनाता है , बहुत कुछ है , पर सब कुछ नहीं है।  न कभी चीजों से मन भरेगा , न कभी ख़ुशी की तलाश ही कम होगी।  हम हमेशा प्यार भरे दिल की तलाश में रहते हैं , जो हमें जैसे हम हैं वैसे ही स्वीकार करे और चाहे।  मगर खुद उसे उसकी कमिओं के साथ कभी स्वीकार नहीं करते।  उसके behaviour के पीछे उसकी नासमझी , frustration या expectation वाले कारण को नहीं देख पाते।  वो तो करुणा का पात्र है।  जब तक कोई receiving mind में न हो , हम उसे कुछ भी नहीं सिखा सकते।  प्यार सबसे बड़ा अस्त्र होता है , ये दिखाना नहीं होता , इसका असर अपने आप दिखता है।  प्यार ने हमेशा वो काम भी करवाये हैं , जो नामुमकिन होते हैं। प्यार ही आदमी को तनाव-मुक्त  रखता है ,will power को बढ़ाता है। सही रास्ता दिखाता है।  माफ़ करने वाला हमेशा गलती करने वाले से बड़ा होता है।

मित्र-दोस्त तो हम बना सकते हैं , मगर रिश्तों के साथ तो हम पैदा होते हैं।  भाई-बहन , माँ-बाप ,पति-पत्नी , बच्चे ये रिश्ते किसी कारण से होते हैं।  यहाँ हमें अपना कर्तव्य याद रखना है।  ये खाता (account )भगवान ने खोला है इसके पीछे का भेद जान लो। जिम्मेदारी हमेशा आगे बढ़ कर ली जाती है।हमें ये ध्यान रखना होता है कि हम राह न भटकें , और ख़ुशी ख़ुशी अपने रिश्ते निभायें। 

कहते हैं आज जो हम बो रहे हैं कल वही फसल काटेंगे।जो हम बाहर दे रहे हैं , it comes back to us in double amount whether it is hatred or love.ये मन हमसे क्या कुछ नहीं करवा लेता , ये छोटा मन है , हमारी Ego टकराती है , हम अपना remote अपनी ईगो को दे देते हैं।  वो चौराहे पर हमारे relationships की ,हमारी upbringing की , हमारे existence की धज्जियाँ उड़ा  देती है।  हमारी रातों की नींद हराम कर देती है।  समझदारी ये कहती है कि ज़िन्दगी उलझने में नहीं , अपना रास्ता आसान बनाने में है।  सत्ता देनी ही है तो बड़ी ego को दो , जो सबको अपना समझे।  बंद मुट्ठी है लाख की , ' हम ' शब्द ही unity बताता है , दिल में power बढ़ा देता है।  हमें तो फूलों की तरह खिलना है।  

 धैर्य के साथ अपनी बात दूसरे को समझानी चाहिए ।  मित्रों -दोस्तों की पोल तो आड़े वक्त में देर-सबेर खुल ही जाती है।  रिश्ते ही घर को घर बना सकते हैं।  ताकि दुनिया की ठोकरों से जब घबरा के कोई घर लौटे तो कोई छाया तो हो उसे आराम देने के लिए। रिश्तों के पौधों की जड़ों को अगर खाद-पानी न मिले तो पौधे सूख जाते हैं , पनप नहीं पाते।  जड़ें मजबूत हों तो फूल खिलते हैं , टहनियाँ आसमान छूती हैं। बड़ी-बड़ी बातें एक दिन में घटित नहीं होतीं।  छोटी-छोटी बातें ही आदमी को महान बनातीं हैं। 

रविवार, 22 सितंबर 2013

गुरु सँभाल के कीजिये

गुरु सँभाल के कीजिये। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि गुरु के बिना गति नहीं होती है। ऐसा इसलिये कहा गया है कि गुरु हमारा हमारे अपने ही असली स्वरूप यानि एक अदृश्य सत्ता से जुड़े होने का परिचय करवाता है।  राम-रहीम तो माध्यम भर हैं ; क्योंकि साकार में मन टिकता है ,इसलिये शुरुआत वहीँ से की जाती है , अदृश्य का भान इतनी आसानी से नहीं हो सकता।  

आज आदमी घबराया हुआ , भरमाया हुआ पहुँचता है गुरुओं के पास ; जो दिया उसकी आस्था ने जलाया होता है वो उसे गुरु का चमत्कार समझ लेता है।  उसे समझ ही नहीं आता कि दुख में आकण्ठ डूबे हुए उसकी आँखों पर पर्दा पड़ गया है और उसकी इसी हालत का फायदा उठाया जा रहा है।  टी. वी. चैनलों पर आई हुई धर्म-गुरुओं , बाबाओं , तान्त्रिकों और ज्योतिषिओं की बाढ़ ने आग में घी का काम किया है।  आदमी भूल जाता है कि अन्तर्मन का दिया जलाने के लिये जो तीली वो बाहर तलाश रहा है वो तो उसकी अपनी चेतना के पास मौजूद है। 

सदिओं से अतृप्त मन से उपजी विकृतियाँ समाज में समस्या पैदा करती रही हैं।  इसी सिलसिले में मुझे एक किस्सा याद आता है कि एक धर्म-स्थान के अधेड़ उम्र के गुरु हारमोनियम सिखाते थे , मैं छठी-सातवीं क्लास में पढ़ती थी ,वो एक एक कर लड़कियों को अन्दर बुलाते , बाहर बरामदे में बाकी बच्चे कतार में बैठे रहते।  सिखाते-सिखाते वो चिकोटी काट लेते , एक एक कर बच्चों ने सीखना बन्द कर दिया।  क्या पता वो उँगली पकड़ के पहुँचा पकड़ने की फिराक में हों।  उस उम्र में नासमझी के साथ-साथ न जाने कैसी दहशत सी भी होती है , और वो तो बीमारों को भभूत की पुड़ियाँ भी बाँटते थे , फिर बच्चों की बात का यकीन भी कौन करता। आज हाथ में कलम भी है , दिल में निडरता भी और समय की माँग भी।  बच्चों और किशोरों का यौन-शोषण ज्यादातर अधेड़ उम्र के लोग ही करते हैं।  आसाराम का नाम इस प्रकरण से जुड़ने के बाद मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ , मगर इस मामले में कभी किसी निरअपराधी को नपना नहीं चाहिए। 

भगवान न करे कि आदमी भगवान के नाम पर , दुख दूर होने के लिए , आकांक्षाएँ पूरी करने के लिए किसी भी रास्ते पर चल पड़े।  एक बार इनके शिकंजे में फँस गया तो ये उसे पूरी तरह लूट कर भी शायद न छोड़ें। 

गुरु का चयन ठोक-बजा कर कीजिये।  जहाँ बहुत पैसे का लेन -देन है , कर्म-काण्ड है , वहाँ भी ज्ञान नहीं लगेगा।  जो ज्ञान आपको अपने घर में अपनी प्रारब्ध से ताल-मेल बैठाना सिखाये , जो सबको अपना समझना सिखाये , सुख-दुख में सम रहना सिखाये , वही धीरे से आपको मन के चलायमान रहने से परे ले जा सकता है।  है न ये अतीन्द्रिय अनुभव ! भगवान है ही एक अदृश्य न्याय-प्रिय सत्ता का नाम , जो हमारे अन्दर ही विद्यमान है।  जो गुरु खुद से जोड़ कर अपनी छत्र-छाया में रखना चाहे , वो आदमी को पंगु बना देगा।  जो गुरु ,जो धर्म अपने वचनों पर चलना सिखलाये , आपको आपके अपने क़दमों का आधार दे ; वही हृदय में सहजता , शान्ति एवं निडरता ला सकता है।  सच्चे अर्थों में जीना इसी को कहते हैं।  

गुरु सँभाल के कीजिये 
गुरु ही तारण-हार रे 
एक गुरु आके निकट 
कर डाले है वार रे 
एक गुरु उँगली पकड़ 
भव से लगा दे पार रे 

दुख की मण्डी में सदा 
होता है व्यापार रे 
दाँव पर दिल है लगा 
उसके चाकू में धार रे 
आँखें खोल के रख जरा 
सुख-दुख जीवन सार रे 

अपने स्वरूप के ज्ञान से 
होंगीं आँखें चार रे 
मिल जायेगी दिशा तुझे 
बैसाखी पर न रखना भार रे 
सच्चा गुरू देगा तुझे 
तेरा ही आधार रे 

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

जल प्रलय से उपजी स्थितियाँ

जल प्रलय से उपजी स्थितियाँ बड़ी विकट हैं। जान-माल की हानि के साथ समस्या सिर्फ पुनर्वास की नहीं है , बल्कि पीछे बचे लोगों के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की भी है। त्रासदी में जान गँवा चुके लोगों की लाशों के ढेर किसी महामारी का रूप भी ले सकते हैं। जो लोग इस त्रासदी के मूक गवाह हैं , बहुत अवसाद में हैं , ऐसा डॉकटर्स की जाँचों में आ रहा है। जिनके क़दमों के नीचे जमीन ही नहीं , सर पर आसमान भी नहीं है , वो सहज कैसे रह सकते हैं। आपदा ने घर-बार , रोजी-रोटी ,अपने-सपने ,सब कुछ तो ले लिया। जैसे एक स्याही पुती हो आने वाले कल और बीते हुए कल के मुँह पर। 

इनका हाथ पकड़ना और इन्हें इनके क़दमों के बल पर चलाना ही इन्हें वर्तमान या भविष्य से जोड़ पायेगा। ये बहुत मुश्किल काम है , मगर असम्भव नहीं। इस वक्त इन्हें उठ कर अपने जैसे लोगों की मदद के लिये प्रेरित किया जाना चाहिये। जब ये दूसरों की उँगली पकड़ेंगे , सँगठित होकर टीम-वर्क करेंगे ,इनके आज को दिशा मिलेगी। मन बगावत करते हुए भी आखिर-कार धीरे से पटरी पर आ जायेगा। इस वक्त आत्मा-परमात्मा की कोई भी बात इन्हें नहीं सुहायेगी। ये लोग गुमसुम रह सकते हैं ,अनर्गल प्रलाप करते हुए पगला सकते हैं या फिर झगड़ालू ,विध्वंसक ,आत्मघाती या लालची प्रवृति के भी हो सकते हैं। दुख का वेग इन्हें किसी भी तरफ धकेल सकता है। इसलिए इन्हें सिर्फ हिफाज़त या सहानुभूति की ही जरुरत नहीं है , बल्कि इन्हें इनका खोया हुआ मानसिक आत्मिक बल लौटा पाने की युक्तिओं में व्यस्त रखते हुए ज़िन्दगी की तरफ लौटाने की भी जरुरत है। 

आवश्कता है कि इनकी प्रतिभा व सामर्थ्य के अनुसार भरण-पोषण , आवासीय , स्वास्थ्य , साफ़-सफाई व मार्ग-निर्माण जैसे कार्यों में इनसे मदद ली जाये। दिन की शुरुआत या शाम प्रार्थना व भजन से हो , कुछ देर इन्हें अपने अनुभव बाँटने के लिये साथ रहने की सुविधा दी जाए। ताकि ये मन बाँट कर अपना दुःख हल्का कर सकें। खुशवन्त सिंह के 'मनोमाजरा ' के वृतान्त की तरह ही लाशों का अम्बार और सामूहिक दाह-संस्कार भला किस का मन विचलित न कर देगा। जब आम आदमी अपने छोटे-छोटे दुखों में ही हिलता रहता है , तब ये तो इस सदी की भयानक त्रासदी है। ऐसे वक्त में जब निराशा इन्हें पल-पल निगल रही है ,सिर्फ ग्रुप में किया गया काम इन्हें आशा की किरण दे सकता है , संगठित कर सकता है। मदद के लिये उठने वाला हाथ , सहारा देने वाला हाथ कभी कमजोर नहीं होता। दिशा पकड़ते ही दशा सुधरने लगेगी। 

साथी हाथ बढ़ाना ,साथी रे 
एक अकेला थक जायेगा 
मिल कर भार उठाना 
कितना दम है इन पंक्तिओं में ...

उठो , बाँटो ख़ुशी 
चेहरे जो हैं मुरझाये हुए 
कुछ इन पे करम कर लो 

फूलों की कहानी देखो तो 
काँटों पे ठिकाना 
बाँहों में इन्हें भर लो 

अँधेरे का सितम ,टूटा दिल है 
ठहरा है गुज़रा जमाना 
आज़ाद इन्हें कर दो 

इन आँखों में दहशत के सिवा कुछ भी नहीं 
बेरौनक है फ़साना 
जीवन से इन्हें भर दो ....

शनिवार, 27 अप्रैल 2013

टूटे खिलौने सा धर दिया

न जाने कितनी दामिनियाँ , गुड़ियाँ आदमी की कुत्सित सोच की भेंट चढ़ गईं। कहते हैं कि विध्वंस के लिये आदमी जितनी जल्दी एकजुट होता है , उतनी जल्दी सृजन के लिए नहीं होता। दामिनी की बदनसीबी देखिये कि उन छह दरिंदों में से एक ने भी इस काण्ड को अंजाम देने से रोकने के लिये विरोध तक न किया। आदमी की होशियारी देखिये कि बिना बोले आँख से ही खिल्ली उड़ा लेता है , दूसरे की टाँग खींच लेता है , एक बार भी नतीजे की परवाह नहीं करता। 
'जहाँ न पहुँचे रवि ,वहाँ पहुंचे कवि ' की तर्ज़ पर हमारा मीडिया हर जगह पहुँच जाता है। अपराधियों ने कभी न सोचा होगा कि उनके अपराध जग-जाहिर हो जायेंगे। और अगर आत्मा जगी हुई होती या अपराधों के प्रकाश में आने का डर उन्हें होता तो वो इतने जघन्य अपराध कर ही नहीं सकते थे। 
हम लोग लगे हुए हैं पुलिस , मुकदमा , सख्त सजा , सरकार का दबाव बनाने में।इतनी सख्त सजा जो किसी की रूह कंपा दे ..यानि भय से एक हद तक अपराध काबू में रह सकते हैं। यहाँ विचारणीय विषय यह है कि बढ़ते अपराधों का कारण क्या है। बहुत खुलापन या सीमा में रखने की कोशिश में पड़ा हुआ दबाव। यूरोपीय देशों की तर्ज़ पर फैशन , सर्वसुलभ मोबाइल और नेट पर मिली सुविधाओं का गलत प्रयोग और लुप्त होते हुए नैतिक मूल्य ..आदमी को कहाँ पहुँचायेंगे। जिस बात को दबाया जाए वो भी दुगनी ताकत से फूट पड़ती है , ये जग को विदित है। आदमी की सोच मायने रखती है , वो अपनी ताकत को सही दिशा देता है तो सृजन होता है। भटकने में देर नहीं लगती , अँकुश नहीं है तो विध्वंस भी दूर नहीं है। 
सारी कवायदें ज़िन्दगी की ज़िन्दगी के लिए 
सारे डर मौत के , विध्वंस के 
मेरी नजर में तो आदमी जीने के लिए सारी कवायदें करता है ..फिर ये क्या होता है कि भटक कर बिच्छू की तरह अपनी ही पूँछ खाने लग जाता है। 
इन अपराधिओं की मनो-चिकित्सकों द्वारा स्टडी की जानी चाहिए कि इनके बचपन या रोजमर्रा की ज़िन्दगी में ऐसा क्या-क्या शामिल था , जिसने इन्हें ऐसी कुत्सित सोच की तरफ धकेला। जब बीज पड़ा ही था उसे खाद-पानी न दिया जाता तो पौधा पनपता ही नहीं। गुड़िया के एक अपराधी की छह महीने पहले ही शादी हुई थी ,उसकी पत्नी कुछ दिन पहले उसे छोड़ कर चली गयी थी ; ऐसा टी वी न्यूज से पता चला। उसकी पत्नी से उसके रिश्ते कैसे थे , ये भी अपराधी की मानसिकता पर प्रकाश डाल सकते हैं। बीमार मानसिकता ही उन्हें इन अन्धी गलियों के कगार पर छोड़ गई है। 
निठारी-काण्ड को लीजिये। कितने बच्चों के कंकाल नाले से और किडनियाँ लिवर फ्रिज से मिले थे। सोच कर ही उबकाई आने लगती है। निष्ठुरता , बर्बरता कहें या क्या ? आदमी को आदमी भी न समझा गया। ये किसी स्वस्थ्य दिमाग का काम नहीं है। इनकी केस-हिस्टरी से शायद कोई ठोस हल निकल कर आये ..संस्कार-वान माँ-बाप , स्वस्थ्य बचपन के लिए किये गये उपक्रम ही समस्या के निदान का असली हल हैं। 

गुड़िया , खिलौने ला के देने की बजाय ,
तुझे खिलौना समझ लिया 
ये कैसे सिरफिरे हैं , 
कि बचपन मसल दिया 
ऐसे दागों के साथ परहेज करती है ज़िन्दगी ,
हक़ उसका सरे-आम कुचल दिया 
नन्हीं मैना क्या बतायेगी ,
टूटे खिलौने सा धर दिया 
गुड़ियों की दुनिया होती है बड़ी हसीन ,
चन्दा मामा होते हैं ,होती हैं परियाँ जादू की छड़ियाँ लिए हुए 
झरते हैं फूल डालियों से 
लग गये ग्रहण , तोड़ डाली कलियाँ ,
मन्जर बदल दिया 
मेरी गुड़िया ,सपने में भी तुझे सताये न कोई डर ,
हाय, माँ के काले टीके ने भी कोई असर न किया ...

शनिवार, 16 मार्च 2013

अन्तर्जाल की सुविधा

गाँव शहर एक होने लगे
दुनिया ग्लोबलाइज़ होने लगी
न्तर्जाल की दुनिया ने हजारों मील दूर बैठे व्यक्ति के भी अन्तरंग पलों में झाँक लेने की सुविधा हमें दी है। गूगल सर्च तो जैसे हर मर्ज का इलाज हो। कैसा भी विषय हो हर सम्भव जानकारी और हल के सारे औप्शन्स  बस एक क्लिक के साथ हाजिर हो जाते हैं। मोबाइल और कम्प्यूटर ने नेट के जरिये दुनिया को छोटा कर दिया  है या यूँ कहिये हमारे दायरे को विस्तार दे दिया है।
चिन्ता का विषय ये है कि हर हाथ में अन्तर्जाल की सुविधा ने जैसे हर किसी को नेट पर व्यक्तिगत डायरी लिखने का जन्म-सिद्ध अधिकार दे दिया हो। अश्लील विकृत मानसिकता दर्शाती हुई हर सम्भव जानकारी यहाँ परोसी जा सकती है। न चाहते हुए भी आप अन्जाने ही कभी उनके लिंक्स तक पहुँच सकते हैं। ये लिंक्स कुकुर-मुत्तों की तरह उग आये हैं। हमारे नौनिहालों के हाथों में लैप-टॉप पहुँच चुके हैं , नई पीढ़ी जरुरत से ज्यादा तेज दिमाग वाली है , उसे काबू में रखना कठिन है ; और आप कितने पहरे बैठा लेंगे ! ऐसी साइट्स अच्छे-भले सँस्कार-शील चित्त को भी भ्रमित करने के लिये काफी हैं तो बच्चे तो कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं , उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ ठीक नहीं है।
विचार तरँगों की तरह फैलते हैं , छोटा अणु ही इकाई है ...परमाणु का जिम्मेदार कहीं ...ये कितना विस्फोटक हो सकता है ! हम इतने क्षुद्र कैसे हो सकते हैं , हम शुद्ध-बुद्ध हैं ...निकृष्ठ बातों में उलझ कर तरक्की कैसे करेंगे।
जो लोग नेट पर अश्लील लिखते हैं , दरअसल वो उनके मन की गाँठें हैं , जिसे वो बिना अपना नाम लिखे दुनिया को बाँट रहे हैं।नारी उपभोग की वस्तु नहीं है।प्रेयसि शब्द प्यार झलकाता है , आप जब किसी को प्यार करते हैं तो स्वयम अपने आप से प्यार करते हैं। सब कुछ मर्यादा में ही अच्छा लगता है, वरना जँगल-राज हो जायेगा। सारी उन्नति , सारे नियम-कायदे बेमायने जायेंगे। ऐसा कुछ भी लिख कर जिसे पढ़ कर शर्म से सिर झुक जाये या जिसका लिन्क ही पढ़ कर लगे कि इस वेब पेज को भी कम्प्यूटर की हिस्टरी से भी डिलीट कर दिया जाये ; कितना हानिकारक है। लेखन वही सार्थक है जो किसी के काम आये , जो किसी का मन उठाये या किसी का दुख हल्का करे। 
नेट की दुनिया को आभासी दुनिया कहा जाता है। सामीप्य का आभास तो होता है मगर अहसास नहीं होता।   जहाँ पहचान छुपा ली जाती है या बढ़ा-चढ़ा कर बताई जाती है , यानि सच में कमी सी है। सामीप्य की प्यास लिए आप आते हैं कुँए की तस्वीर के पास , तृप्ति क्या मिलेगी। इसलिए कर्तव्यों , अधिकारों , अपने आस-पास की जीती-जागती दुनिया से मुँह मोड़ कर इन आभासी रिश्तों से दिल लगाना अक्लमंदी नहीं है। सारी सोशल साइट्स भी व्यवहार का ही रूप हैं , इतने लाइक्स , इतने कमेन्ट्स ....आप देते हैं तो पाते भी हैं। आज की युवा पीढ़ी तो जैसे इस सबके पीछे पागल ही है। तकनीक का इस्तेमाल तकनीक की तरह ही किया जाना चाहिये।
          नेट ही वो माध्यम है जिससे बिना कुछ खास खर्च किये कॉलेज के फ़ार्म , नौकरियों के आवेदन-पत्र , बिजली के बिल घर बैठे ही भरे जा सकते हैं। ऑन लाइन शौपिंग , बैंकिंग , ई-टिकेटिंग और न जाने क्या क्या कर सकते हैं। स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के लिये ब्लॉगिंग कर सकते हैं। मेरे जैसे लोग तो शायद कागज ही काले करते रहते और वो कभी प्रकाश में न आता अगर ब्लॉगिंग न होती। सोशल साइट्स ,वीडिओ चैट घर बैठे ही दुनिया जहान से जोड़े रखती हैं। इस भागती-दौड़ती दुनिया में नेट एक आवश्यकता बन गया है , तरक्की का पर्याय भी बन गया है व समय और धन का संरक्षक भी बन गया है। मगर फिर भी ये मायने रखता है कि आप अपने साधनों का इस्तेमाल उत्थान के लिये करते हैं या पतन के लिए। 

गुरुवार, 10 जनवरी 2013

संवेदनाएँ जगा के देख ...

उसने अपनी माँ से पूछा कि " माँ , हमारे रिश्तेदारों को तो इस बारे में पता नहीं  चला है ?" 
उसे क्या पता कि कितने प्रदर्शन , धरने , मौन सभाएँ व कैंडल-मार्च उसके लिए किये गये हैं  अखबारों में , टेलीविजन , नेट सारी दुनिया की ख़बरों में है वो  उसकी वेदना सारे देश की वेदना है । नारी ही नहीं पुरुष वर्ग भी आहत है , ऐसा किसी की भी बेटी या बहन के साथ भी हो सकता था , नारी उपभोग की वस्तु नहीं है । पब्लिक ट्रांसपोर्ट जैसे सुरक्षित माध्यम में भी नारी असुरक्षित है । संवेदना की ऐसी लहर उठी कि सारा देश सड़कों पर आ गया  जिससे सरकार को  सख्त कदम उठाने के बारे में सोचने के लिए विवश होना पड़ा 

माँ अपनी बेटी से क्या कहे ...कि  हाय मेरी बेटी ...दोष तेरा तो कुछ भी नहीं था ...सांत्वना भी नहीं दे सकती कि कहीं उन शब्दों से तेरा हौसला कम न हो जाए ..माली फूलों की सँभाल करता है ...ये दिन देखने के लिए नहीं ....रौंदा पड़ा है गुलशन ...मूक हो गये हैं शब्द ...भारी हो गये हैं कदम ...मगर तेरे लिए चलना है ...कलेजे का टुकड़ा है तू ...गर तू हिफाज़त से है ...तभी मुझे चैन है 

इतना दर्दनाक हादसा निर्भया के साथ हुआ , 'निर्भया ' नाम उसे किसी चैनल ने दिया था  हमारे यहाँ तो ऐसे किसी हादसे के साथ नाम जुड़ते ही , आम तौर पर लोग उसका जीना ही मुश्किल कर देते हैं । हादसे से उबरने में ही उसे कितनी ताकत लगानी पड़ती है , फिर दुनिया का उसे नजरों से चीरना , उसके तन मन का पोस्ट-मार्टम कर देता है 

इसी वजह से कई मामलों की रिपोर्ट तक दर्ज़ नहीं कराई जाती कि इज्जत बची रहे । दूसरी वजह लम्बी न्याय-प्रक्रिया है , अपराधी बच निकलते हैं , फिर पहले से भी ज्यादा जुल्म ढाते हैं । वकीलों की तगड़ी फीस , पुलिस-वालों की कड़ी पूछताछ भी रिपोर्ट दर्ज न कराने की वजह बनती है । ये ठीक है कि बेगुनाह को दण्ड नहीं मिलना चाहिए ...मगर जब सुबूत , साक्ष्य और परिणाम चीख-चीख कर कह रहे हों कि अपराधी गुनाहगार है तो वो माफी का हकदार नहीं है । 

महज़ हाड़-माँस का पुतला नहीं थी वो 
तेरी तरह ही इन्सान थी 
हो सकती थी वो तेरी बेटी या बहन भी 
रिश्तों की लाज रखता है , संवेदनाएँ जगा के देख 
चुभ जाती है सुई भी , तो दर्द होता है 
ये कैसे वार हैं नासूर से , ज़िन्दगी भर को दे दिए 
सोयेगा क्या चैन से किसी पल , किसी घड़ी भी 
हाय , मेरे समाज में नारी का मान क्या 
करवा-चौथ , वट-सावित्री के व्रतों का भान क्या 
गिर गये हैं मूल्य सभी , खो गई ख़ुशी कहीं 
बीमार हो गये हैं हम , अपने कारनामे गिना के देख 
बनता है तू शिकारी सदा , 
कभी शिकार की आँख से देख 
संवेदनाएँ जगा के देख ...