शनिवार, 27 मार्च 2010

जिन्दगी का अपना एक अलग ढँग है , हमें सिखलाने का


२२ मार्च , इन्द्रप्रस्थ पार्क , दिल्ली के सामने फ्लाई ओवर पर चढ़ने की बजाय गलती से गाड़ी नीचे की ओर ले बैठे , जाना तो सीधे था | बेटा ड्राइव कर रहा था , स्पीड ज्यादा नहीं थी | कहीं कोई बोर्ड भी नहीं था कि स्पीड कम रखनी है | और ढलान पर गाड़ी ऑटोमैटिकली फिसल कर खुद भी तेजी से नीचे आती है | पुलिसवालों ने अच्छी जगह खोज रखी थी शिकार पकड़ने के लिए | हमारी गाड़ी रोक ली गई , ४०० रु का चालान भरवाया गया | कुछ मीटर पीछे दिल्ली पुलिस की गाड़ी खड़ी थी , बेटे ने कहा देख कर आता हूँ , इंट्रा-सेप्टर पर स्पीड कितनी आई है | अपने पापा के साथ वो वहाँ तक पहुँचा| बहस होती देख बेटी व उसकी मित्र भी वहाँ पहुँच गए | वहाँ मौजूद ऑफिसर अपने पद के अहम में बिफर कर बोलता और बार-बार किसी कागज़ पर हस्ताक्षर करने के अन्दाज़ में झुकता और कहता कि अब रैश-ड्रायविंग के लिए १४०० रु का जुर्माना लगाऊँगा | बेटे ने कहा कि स्पीड का रेकोर्ड इंट्रा-सेप्टर ७४ दिखा रहा है , कैसे जुर्माना लगाओगे ? हमारा डॉक्टर के साथ अपौइंटमेंट था , इस आदमी की वजह से लेट हुए ....अगले दिन बेटे का इम्तिहान भी था | बेटे ने उसका नाम , गाड़ी नम्बर सब लिख कर रख लिया कि शिकायत जरुर करनी है | मैनें भी सोच लिया ब्लॉग में लिख कर इस आदमी को ,इस जैसे और कईयों को सबक सिखाना है |
मगर अब नाम नहीं लिखूँगी , इसी तरह पिछले साल एक हॉस्पिटल में जब हमें न तो पूरा ध्यान मिला न ही किसी ने कागजी कार्य-वाही में सहयोग दिया ....उस दिन मैं इतना रोई थी कि खफा होकर एक एक का नाम लिख लिया था कि ब्लॉग में इन सबका भण्डाफोड़ करना है | मेरे भाई जी ने समझाया , काम तुम मेरे ऊपर छोड़ दो , ये सब राम भरोसे चल रहे हैं ....इन्हें खुद भी अपनी प्रणाली की जानकारी नहीं है , दूसरे हमारा मरीज ठीक होना चाहिए ...बस | उफ्फ़ , मैं कहाँ उलझ गई थी , इस सब में उलझ कर मैं अपनी प्राथमिकता से दूर होने जा रही थी | नाम पते के साथ लिख कर मैं अस्पताल को भी बदनाम करती .....इन शब्दों की गूँज से क्या मैं अपरिचित हूँ ...जो मेरे अन्दर इतना शोर मचाये हुए है वो मेरी इस क्रिया के बाद उनकी प्रतिक्रिया ..और फिर एक सिलसिला ....कहाँ जा कर ख़त्म होगा सब | मैंने दोनों हाथ उठा कर दुआ माँगी उनकी सद बुद्धि के लिए | अपनी भी बुद्धि का स्वामी मँगल और लग्नेश चन्द्रमा दोनों उकसाते रहते हैं गुस्से और आंसुओं को बाँध तोड़ व्याकुल करने के लिए | खुद को सिखाना पड़ता है कि दूसरे की क्रिया के पीछे मौजूद उसकी परिस्थितियाँ , उसकी समझ , उसकी मजबूरियाँ देखने की कोशिश करूँ | बस यही दृष्टिकोण मदद कर सकता है , वरना प्राण-शक्ति का धागा ज्यादा कस देने से टूट भी सकता है ....उसका भी....मेरा भी |


२३ की सुबह नैनीताल वापिस पहुँची , दुर्गा अष्टमी का दिन , मंदिर जा कर कन्या जिमानी थीं , जल्दी जल्दी काम निपटाए ...बस आख़िरी काम समेट कर अब अपना लैप टॉप खोला जाय ....ब्लॉग की दुनिया की सैर की जाय | मन्दिर से लौटा बैग फोल्ड कर कमरे में रखने गई , अन्दाज़ ही नहीं आया , कैबिनेट के तीखे कोने पर झुकते हुए जोर से मेरी दाईं आँख और माथा टकराया ....कस के हाथ से दबाया , खून ही खून , हाथ से खून के फ़ोर्स को रोकते हुए माँ की मूर्ति की ओर गई , दिया अभी जल रहा था , आर्त स्वर में पुकारा ' माँ , माँ मुझसे क्या गलती हुई ' , पलट कर एक हाथ से फोन मिलाया , निचली मंजिल पर जनरल मैनेजर रेजिडेंस है , फोन किया ' भाभी जी ,गाड़ी मंगवाइये , आँख में चोट आई है , आकर मेरे घर का ताला भी लगाइए |'
आँख बच गई थी , भौंह से ऊपर माथे पर दो टाँके आए | बाकी पूरी दोपहर , बिस्तर पर पडी सोच रही थी , अगर पूजा में कोई गलती हो भी गई हो तो भी माँ तो कभी अपने बच्चों को कष्ट देती ही नहीं हैं ....क्योंकि वो तो भाव देखती हैं , मैं तो आज भी इस अहसास से भरी हुई हूँ कि वो मेरे आसपास ही यहीं कहीं हैं .....और अगर ये कष्ट मेरे बच्चों पर आने वाला था और मुझ पर आया तो इस जैसे सात जन्म न्यौछावर | एक अपनी बड़ी पुरानी कविता दस्तक दे रही है .......


ऐ जिया , सवाल है
है किसका दिल तोड़ा मैंने
किसकी मधुर रागिनी को
सुन कर के मुँह मोड़ा मैंने
किसकी आहों का असर है मुझ पर
सुलगते दिल को छेड़ा मैंने
अपना ही कोई कर्म आया होगा आड़े
जब लिखा जा रहा होगा भाग्य
अपना रास्ता हम खुद हैं चुनते
नियति बन कर , है वही छलता रहा


कैबिनेट का तल्ख़ कोना और मेरी तल्ख़ जुबान , नतीजा किसी सीमा तक भी जा सकता था | हाँ , इसीलिये मैंने किसी के भी नाम पते नहीं लिखे , कलम तलवार भी बन सकती है और सुई धागा भी | जख्म सी कर , मांस को सही जगह बैठाना होता है ताकि निशान भी कम से कम आयें | कुछ दिन दुनिया से दूर , पल्यूशन फ्री , आराम से ध्यान रखना होता है | हर ठोकर अपने निशान तो छोड़ ही जाती है | जिन्दगी का अपना एक ढंग होता है सिखाने का .....कभी ठगती है , छलती है , कभी मरहम पट्टी कर सहलाती है | ईश्वर ने हमारी उंगली नहीं छोडी है , शायद हमने ही उस विष्वास की पकड़ ढीली कर ली है |

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

हवाओं से सुगन्ध आए


एक बार सर्दियों में जब हम तराई के अपने घर में रहने गए ,देखा कि हमारे किरायेदार बहुत सारी किताबें छोड़ कर लापता हो गए थे | अब रद्दी ठिकाने लगाते वक्त कुछ अपनी रूचि की किताबें मैंने अपने पास रख लीं , कुछ कबाड़ी को दीं और वो सारी किताबें जो यंत्र तंत्र या ऐसी ही कुछ विद्याओं की थीं , वो सब मैंने जला दीं | क्योंकि मेरे हिसाब से आधे-अधूरे ज्ञान से खतरा ज्यादा होता है ....दूसरे कोई भी ज्ञान या ताकत इंसानियत से बढ़ कर नहीं है| मैंने उन्हें खुद पढ़ा , ही कबाड़ी के हाथ लगने दिया | हमारे किरायेदारों का हाल हमारे सामने था , अर्श से फर्श पर पहुँच गए थे , फेक्टरी नुकसान में गई , हमारा किराया एक साल से दे पाए थे , आखिर सरकार लेनदारों से छुपकर पता नहीं किस कोने में गए | गलत दिशा पकड़ने में कितनी देर लगती है ! फिर एक बार इस मकड़जाल में उलझ कर किनारा शायद कभी मिलता हो , मन की शान्ति कभी मिल ही नहीं सकती |


आदमी जब अपराध करता है तो कहते हैं कि उसकी नींव कहीं कमजोर है यानि उस अपराध की प्रवृति का बीज बचपन में कहीं पड़ गया था जो गलत दिशा में पनप गया | और जब बच्चा गुनाह करता है , यानि बीज इंस्टेंट फल फूल गया ,....दोनों तरह से दोषी तो कहीं कहीं बड़ा आदमी ही है , उसने ऐसे दृश्य उस बच्चे को क्यों दिखाए कि वो ऐसी मनस्तिथि से गुजरा जिसने उसे गुनाह के लिए उकसाया |


आदमी जिस सुख को पाने के लिए नए नए तरीके ईजाद करता है , वही चाह एक दिन उसे ले डूबती है |सुख तो मन से भरपूर रहने में है , बाहर तो कभी मिल ही नहीं सकता | मृगमारिचिका की तरह आँखों पर पर्दा पड़ जाएगा , सुख की चाह दूरगामी प्रभाव को भी नजर-अंदाज़ कर देगी | लेखक बिरादरी से मेरा अनुरोध है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ऐसा कुछ भी रचें जिस से अपने देश के बच्चों पर कोई भी गलत असर पड़े |


न रचना कुछ भी ऐसा
कि हवाओं से दुर्गन्ध आए
पढने सुनने वालों में ,
वो तेरा नन्हा बच्चा भी हो सकता है
न दिखाना उसे वो दिन
कि मुँह छिपा कर शर्म आए
घर की मर्यादा न करना नीलाम
इसी राह से सुकून आए
जाने लगते हैं जब दुनिया से
खुद से नजरें चुरा कर , न कोई जाए
बस वही रचना कि जाने के बाद भी
हवाओं से सुगन्ध आए