मंगलवार, 6 नवंबर 2012

आधार

किसी भी दुख का इलाज प्यार हो सकता है  मगर शरीर से या रिश्ते से प्यार तो भुलावा है ...छलावा है । जी तो  आप बाहरी आधार पर ही रहे हो , जो कभी भी आप के हाथ से फिसल सकता है । इसलिए ऐसा आधार जो अपने क़दमों चलना सिखाये , अभ्यास में लाना जरुरी है । ये आधार है अपनी चेतना के अनुभव का  जैसे ही आप महसूस करेंगे कि शरीर मन बुद्धि के सारे क्रिया-कलापों को  चलाने वाली आत्मा आप ही हैं , सब कुछ आप के नियंत्रण में हो सकता है । सारी आत्माएँ अपने अपने रोल के अनुसार या कहिये हमारे पिछले लेने देने के हिसाब के अनुसार हमारे समीप आतीं हैं , अपना अपना रोल अदा करतीं हैं ; इस सब में हमें बिना विचलित हुए अपना पार्ट बखूबी अदा करना है ...हाँ और काँटे नहीं बोने हैं यानि और कर्मों की खेती नहीं करनी है । जहाँ आपने बन कर बात की या श्रेय लेने की कोशिश की , वहीं अहं का पुट आ जायेगा , ये छाप मन पर उतर जायेगी , दूसरा आहत हो जायेगा और फिर कर्मों का दूसरा सिलसिला शुरू हो जाएगा । 

जिस तरह कहते हैं कि  बाँटा हुआ सुख दुगना हो जाता है और बाँटा हुआ दुख आधा रह जाता है ; बिलकुल उसी तरह जब मन दुःख बुद्धि के साथ बाँट लेता है तो शरीर का दुःख भी आधा रह जाता है । अब मन को खुद को समझाना आ जाता है ; मन शरीर और आत्मा में भेद करना सीख जाता है । शरीर के दुःख को , कमियों को , रिश्ते-नाते , स्थूल सूक्ष्म , मन के तल पर उतरते कैसे भी दुःख को हल्का करते हुए मन तक नहीं पहुँचने देता । ये आसान नहीं होगा ,मन बार बार बाहरी स्थूल दृष्टि में उलझेगा क्योंकि मन ने शरीर धारण किया है तो स्वाभाविक तौर पर इन चक्षुओं से से वही दिखता है । सूक्ष्म दृष्टि  बार बार मन को अटकने से बचा लायेगी । इस तरह अन्तर्दृष्टि का अभ्यास आत्मा के अनुभव ( सोल कौन्श्य्स नेस ) में लौटा लाएगा । धीरे धीरे डिटैचमेंट का अनुभव होगा । मन पर किसी के लिए भी मैल का दाग मत रखो । ये कैसी विडम्बना है कि गैरों को तो हम फिर भी माफ़ कर देते हैं , मगर बहुत अपनों से बहुत उम्मीद रखते हुए लगातार एक शीत युद्ध पाले रखते हैं । वो आत्मा भी अपना रोल अदा कर रही है और यहीं तो हमारी आत्मा का अभ्यास काम में आना है , या कहो यहीं तो हमारी परीक्षा है । 

ऐसा नहीं है कि शरीर से आत्मा की विरक्ति का अनुभव आपको सिर्फ दुखों से मुक्त करता हो और आनन्द से वंचित कर देता हो । जब आप एक सूक्ष्म दृष्टि जिसमें सभी जीव भाव यानि आत्मा के स्वरूप में दिखते हैं तो सभी आप सामान दिखते हैं , तो ' न काहू से दोस्ती , न काहू से बैर ' वाली बात हो जाती है । सब की ख़ुशी अपनी ख़ुशी । आप एक अजब सात्विक आनन्द से भर उठते हो ; और ये वो ख़ुशी है जो बिरलों को प्राप्त होती है । इस तरह जीते जी मुक्ति का अनुभव होता है , न तो दुक्खों ने आत्मा पर बोझ डाला हुआ होता है , न ही आत्मा अपने असली स्वरूप सत चित आनन्द से वन्चित होती है । इस तरह आप अपनी जिम्मेदारियाँ ज्यादा अच्छी तरह व ज्यादा सन्तुलित रहते हुए निभा सकेंगे । मनुष्य जन्म अनमोल है इसलिए इसकी हिफाजत करना हमारा धर्म है , मगर ये तभी सम्भव है जब हम अपनी आत्मा की भी सम्भाल करें । हमारे जन्म का एक उद्देश्य ये भी है कि हम अपने स्वरूप को पहचान लें । 

कहते हैं सपना न हो तो उड़ान भी नहीं होती । आँखों में सपना गालों पर रँगत तो दे सकता है , मगर इस रँगत को स्थायित्व नहीं दे सकता । टूटे हुए सपनों की किरचें जीवन भर बटोरते हुए आत्मा लहू लुहान ही रहती है । आदमी आसानी से जब इस रास्ते पर नहीं आता तब यही ताप उसे इस दरवाजे पर धकेल जाते हैं । निराशा और वैराग्य में बड़ा अन्तर है  । निराशा पल पल डूबते हुए मन को वहीँ घुमाए रखती है , पीछे छूटा हुआ भी अपने पास लगातार ज़िन्दा रखती है ; वैराग्य ' रात गई बात गई ' की तरह सब भूल कर एक परम आनन्द में डूबा रहता है ; इसका ये मतलब कदापि नहीं है कि सब छोड़ दिया है ...बल्कि ये तो वो चाभी है जिससे दुख के बड़े बड़े जंग लगे ताले भी खुल जाते हैं ...तो कुछ ऐसा लिखें कि खुदा को अपनी लिखी हुई इबारत भी दुबारा लिखनी पड़े । 


शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

क़दमों के निशानों पे चलो

आज फिर अख़बार के साथ साईं बाबा के पर्चे बांटने पर महिमा व पर्चे न बाँटने पर होने वाले नुक्सान के बारे में  लिखे हुए पर्चे बाँटे गये । ये उनकी महिमा का प्रचार प्रसार नहीं है , ये तो एक झूठी आस्था का प्रचार है , निसन्देह ये किसी एक के ऐसा ही परचा पाने पर पैदा हुए डर का प्रतिफल है । बहुत पहले भी ऐसे ही पर्चे किसी न किसी भगवान के नाम पर बाँटे जाते थे । 

हमारा मन कितना कमज़ोर और कितना ताकतवर होता है कि छोटी छोटी आस्थाओं में कितने बड़े बड़े विष्वास पैदा कर लेता है और उनकी छाँव में ही महफूज़ महसूस करता है । यहाँ तक भी ठीक ही है मगर जब नकारात्मक ऊर्जा पैदा करने लगता है तो बड़ी समस्या खड़ी हो जाती है । डर भ्रम की कोई सीमा नहीं होती । 

ये तय है कि होने वाली बात होगी न होने वाली बात नहीं होगी । आप अपने विचारों को बदल लें , सारी दुनिया बदली हुई नजर आयेगी । खुद साईंबाबा का जीवन सेवा भाव को समर्पित था । उन्होंने कभी कीर्ति की परवाह नहीं की थी , फिर सिर्फ ये पर्चे बाँट कर किसी पर भगवान कैसे मेहरबान हो सकता है । जब तक कर्म और भाव न सुधरे , प्रकृति मेहरबान नहीं हो सकती । बेवजह डर पाल कर हम अपनी ही ताकत को भुला देते हैं । 

भगवान को महसूस करने के लिए दुनिया से आँखें फेरनी पड़ती हैं यानि भौतिक जगत की हलचल , अहं भाव जब तक मन में रहता है , हम उस सत्ता को महसूस ही नहीं कर सकते । एक पतली सी लकीर ' मैं ' भाव की भी ज्ञान चक्षु खुलने नहीं देती । जो सिद्ध पुरुष होगा वो कभी बाहरी जगत में उलझेगा नहीं । वो किसी और ही मक्सद के लिए जीता है । इसलिए किसी तरह के बहकावे में नहीं आना चाहिए । 

ज्योतिष विद्या सच है , मगर सब पढ़ने की कोशिश ही करते हैं , अन्तर्यामी कोई नहीं है , इसलिए कह नहीं सकते कि कौन ग्रहों के फल को कितना सही पढ़ पाता है । ज्योतिष विद्या का भी ये नियम है कि किसी को भी आयु या आयु जैसे किसी भी संवेदन शील मुद्दे पर सटीक भविष्य वाणी नहीं करनी चाहिए । सच भी है , किसी का मन गिरा कर उसे जीवित ही मुर्दा कर देने का हक़ किसी को नहीं ; वैसे भी गोचर के ग्रह ,दशा ,अन्तर्दशा , महादशा आदि सही विवेचना को भ्रमित करने के लिए काफी हैं । क्योंकि ज्योतिष वैसे भी बहुत विस्तार वाला विषय है जितना भी अध्ययन कर लो कम है । ग्रहों को ठीक करने के लिए भी तो कर्म का सहारा लिया जाना चाहिए , बनावटी कर्म कांडों से कुछ होने हवाने वाला नहीं । 

बात छोटी सी हो या बड़े भारी दुख वाली , नकारात्मक रहस्यात्मक शक्तियों के प्रभाव का यकीन नहीं रखना चाहिए ; हम खुद एक शक्तिशाली ऊर्जा हैं , जिसे हमें इतना शुद्ध बनाना चाहिए कि  और कोई ऐसा विचार टिक ही न सके । दुःख तो वैसे भी समय के साथ गुजर जाने वाला है , हम भ्रम को भूत बना कर न बैठ जाएँ । 

मन इतना शक्तिशाली होता है कि विष्वास के दियों से रौशनी कर लेता है 
ये आस्था का सैलाब है या झूठे दियों की रौशनी से सपने का विस्तार 
दिया जल तो सकता है , आँधियों में मगर बुझते देर न लगेगी 
समय साधन समझ की बर्बादी है ये 
भटक के रेगिस्तानों में प्यास का ही दीदार करोगे 
सुकूने-दिल के लिए किसी का पेट भरो 
किसी की चोट का मरहम बनो 
किस्मत लिखनी है तो ऐसे लिखो 
साईंबाबा के क़दमों के निशानों पे चलो 

बुधवार, 26 सितंबर 2012

रन्ज का रँग

अरे भई ये तो कैमिकल लोचा है   खुदा ने जब इन्सान की मिट्टी को गूंथा होगा , किस अनुपात से रन्ज का रँग मिलाया होगा । आज भी डैस्टिनी के जरिये कभी थोड़ा कम कभी थोड़ा ज्यादा फ्लो करता रहता है हमारी मिटटी में ।कोई बेवजह उदास है , कोई बहुत तीव्र प्रतिक्रियाएँ देता है । हम तो इसे भावनाओं का खेल समझते थे । दिल जिसे हम हथेली में उठाये घूमते हैं , वो न जाने किन किन प्रक्रियाओं से गुजरता है । हमारे वश में हालात तो नहीं , मगर ये इक्वेशन्स तो हमारे बस में होनी चाहिएँ , क्योंकि इनका रिजल्ट कभी बहुत विस्फोटक भी हो सकता है

और इसके लिए हमें अपना खुदा स्वयं बनना पड़ेगा । जैसे खुदा दूर से सब कुछ देखा करता है , और मुस्कराया करता है ..या फिर जैसे ख़्वाब देखा करते हैं , जागती आँखों से देखना होगा ख़्वाबों को ...
ज़िन्दगी ख़्वाब है ,ख्व्वाब में झूठ क्या और भला सच है क्या .....

किसी ने ज़िन्दगी को ख़्वाब कहा , तो किसी ने ग़मों की किताब कहा । यानि ज़िन्दगी न हुई , चूहे बिल्ली की आँख मिचोली सी हुई । धूप छाया की ठिठोली सी हुई । हम खाम खाँ अपना दिल दाँव पे लगाने को आमादा हैं । 

सब कुछ तो क्षण भँगुर है । आँख खुलते ही परदे से मन्जर बदल जाता है । कभी ज़िन्दगी जुए सी लगती है , जिसके हाथ थोड़े इक्के आ जाएँ , दुनिया सलाम ठोकती हुई सी लगती है । ज़रा सी हार पर दिवाला पिटा सा लगता है । ज़िन्दगी सज़ा भी नहीं , बेशक कज़ा भी नहीं , और बेवफा भी नहीं , और फिर उम्र के त्यौहार में रोना भी तो मना है ।  

कौन सा रसायन रगों में दौड़ने लगता है कि दिल दिमाग की बात मानने से इन्कार कर देता है  । फिर दिमाग पंगु हो जाता है , दिल अपना ही दुश्मन बना ,बिच्छू की तरह अपनी ही पूँछ खाने लग जाता है  । हाँ भई , डाक्टर की भाषा में कुछ हार्मोन्ज ऐसे सिकरीट होने शुरू हो जाते हैं जो आदमी को गहरी उदासी में धकेल देते हैं  । हम इलाज   में लग जाते हैं , मगर कारण की तरफ ध्यान नहीं देते  । मिट्टी लीप लीप कर सतह को साफ़ दिखाते रहते हैं , मगर अन्दर इक ज्वालामुखी हलचल में रहता है, और मौका पाते ही विस्फोट कर सब तहस नहस कर डालता है  । 

किशोरावस्था आते आते हार्मोन्ज अपना खेल दिखाने लगते हैं  । अपनी वय के लोग , विपरीत सेक्स में आकर्षण जो तकरीबन कम ज्यादा सारी उम्र बना रहता है  । धीरे धीरे माँ  के आँचल से लगाव कम हो जाता है  । जहाँ जितना जुड़ाव होता है , चाहे वो रोजगार से सम्बंधित हो या रिश्तों से ,उम्मीद भी ज्यादा होती है , फिर फ्रस्ट्रेशन भी ज्यादा होता है  । परिस्थितियाँ मय इन्सानों के इस कैमिकल लोचे को ट्रिगर करते रहते हैं  । 

इस कैमीकल लोचे की शुरुआत कहीं हमारे भीतर से ही हुई होती है , इसको परवरिश भी हमारे ही मन ने दी हुई होती है  एक हद तक हम अपनी किस्मत खुद लिखते हैं  । हालात कितने भी बदतर क्यों न हों , अपने अन्दर बैठे खुदा के नूर को हमें पहचानना होगा  । दुनिया में बहुत कुछ होता है पर क्या खुदा अपने बन्दों से मुँह मोड़ लेता है  । प्रकृति की अवहेलना नहीं कर सकते , प्रकृति के साथ झूमना साखिये  । 

बुधवार, 29 अगस्त 2012

नहीं हूँ मैं मन ...

चार महीने की लम्बी यातना सह कर जब खड़ी हुई तो क़दमों के साथ साथ मन ने भी चलने से इन्कार कर दिया । लगा कि अब आगे की ज़िन्दगी इसी असहाय सी अवस्था में काटनी पड़ेगी । वक्त कैसे कटेगा और मन ने अपनी पुरानी कमजोरियाँ भी उभार लीं ।मुझे पानी के नीचे जाने और बन्द कमरे में दम घुटने से डर लगता था ,इसीलिए मैं समुद्र में स्नौर्कलिंग भी नहीं कर पाई थी । मुझे समझ में आने लगा कि  मैं फिर से अवसाद की तरफ जा रही हूँ । छोटी से छोटी बात भी मन में खलबली मचा रही थी , घर में अकेले पड़ जाने से तो बेहद घबराहट हो रही थी ।यहाँ तक कि मौत का डर भी सता रहा था ...तो क्या हमारी मंजिल मौत है ...जब वक्त इतना भारी है तो क्या करेंगे जी कर ...मन ने दीन दुनिया से आँखें फेरनी चाहीं ।जब कि चार महीने जब तकलीफ़ ज्यादा थी तो एक अजब सी स्थिरता थी मन में ...तो फिर ये क्या मेरी सकारात्मक ऊर्जा खत्म होती जा रही थी।

मैंने हिम्मत कर के खुद से कहा कि ये तो मन है जो मुझे गुमराह कर रहा है ...और मैं मन नहीं हूँ ...नहीं हूँ मैं मन ...मैं तो इस मन को भी चलाने वाली चेतना हूँ । अपने आप को मैंने एक चपत लगाई ...जब मैं उस वृहत चेतना से अलग हो कर आई हुई उसी का अँश हूँ तो मैं अपनी ताकत क्यों भुला रही हूँ ।  मुझे याद आया कि अभी कुछ ही दिन पहले मैंने एक अखबार में पढ़ा था कि एक लेखक के एक्सीडेन्ट के बाद पीठ में गूमड़ और हाथ में डंडा आ गया था और किस तरह तैर तैर कर उन्हों ने अपना गूमड़ ठीक कर लिया था और डंडा त्याग दिया था । आदमी की इच्छा-शक्ति से तो असंभव काम भी संभव हो जाते हैं । इसके साथ ही याद आई पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल की , वो क्या जानतीं थीं कि इतनी उम्र में वो प्रेजीडेंट बनेंगी । कौन जानता है कि कब ज़िन्दगी उसे उमँग से भरी एक नई दिशा दे देगी । राजनीति या कीर्ति में मेरी रूचि नहीं है , मगर ऐसे उदाहरण तो मन को उठाने वाले हैं और किसी भी क्षेत्र में हो सकते हैं । 

अगर हमारी किस्मत पहले से लिखी होती है तो मैंने समझा कि किसी बड़े अवाँछित कर्म का फल भोग लिया और दुःख से सही सलामत बाहर आ पाई यानि कर्म कटा । हमसे सीधे तौर पर जुड़े या अपरोक्ष रूप से जुड़े लोगों के साथ कर्मों का एकाउन्ट हम यूँ ही नहीं बन्द कर सकते । ये हम पर है कि हम वातावरण को बोझिल बनायें या खुशनुमा । ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में हर चेहरा भरमाया हुआ , घबराया हुआ ...हमें क्या देगा ,जब उसके पास ही वो नहीं है ...जिसकी उसे तलाश है और जो हम भी ढूँढ रहे हैं । और अगर हम ये सोच सकें कि मेरे आस पास की आत्माओं के प्रति जो मेरी जिम्मेदारी है उसे पूरा करने के लिए ही मुझे भेजा गया है , बेशक मैं बहुत सुविधा संपन्न या सक्षम न होऊं , मगर एक नैतिक भावना पूर्ण थपकी तो दे ही सकता हूँ । देने के लिए उठा हाथ ही मन को तृप्त कर देता है , मन को उद्देश्य मिलते ही दिशा मिल जाती है और दिशा मिलते ही मन सहज होने लगता है।

तो हाँ , कुछ दिन लगे मुझे सँभलने में। इस लेख को मैं इसलिए भी लिख रही हूँ कि ये किसी और के भी काम का हो सकता है ।मैंने समझा कि  मन किसी भी सीमा तक आदमी को भटका सकता है , पीड़ा में कुछ सूझता ही नहीं । अध्यात्म ही वो आईना है जो हमारी चेतना से हमारा परिचय करवाता है । हम तो इस मन को भी चलाने वाले हैं फिर हम इसका ही कहना क्यों मान लेते हैं । ज़िन्दगी जैसा उपहार पा कर भी हम उसका सम्मान नहीं करते । 

और याद आया , जो मुश्किल हालात तुम्हें मार न सकें , वही तुम्हारी ताकत बन कर उभर आयेंगे , क्योंकि तुम उनसे गुजर पाए यानि उतना तनाव तुम्हारी बर्दाश्त के अन्दर था । दुख के बहाव में बह जाना एक सीमित दृष्टिकोण से जीना है । ज़िन्दगी को अगर यज्ञ कहें तो कभी कभी ज़िन्दगी हमारी बड़ी ही प्यारी चीजों की आहुति भी माँग लेती है ,जिनके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती । इक आग का दरिया है और तैर के जाना है , सूफिआना अन्दाज़ से ज़िन्दगी को देखें । 


ज़िन्दगी दरअसल लगाव और विरक्ति का मिला जुला रूप है यानि मध्यम मार्ग ही सुखी रख सकता है । लगाव पूरी दुनिया को अपना समझने का और विरक्ति इतनी कि एक दूरी बना कर चलना । ताकि दुख ज्यादा असर न कर पायें । सब ठीक है , बस अपना रास्ता चुन लें । 

कोई भी व्यक्ति जिसके पास सुन्दरता देखने की योग्यता हो , वह कभी वृद्ध नहीं हो सकता ..........फ्रेंक काफ्का 

सुन्दरता माने क्या ...जीवन सुन्दर बनता है सुन्दर विचारों से ...और विचार तो आपके हाथ की बात है । वीणा से सुन्दर स्वर निकालिये या बेसुरे ......






सोमवार, 13 अगस्त 2012

मन की महिमा

प्रिय बेटी ,
इस बार जब तुम कुछ दिन घर बिता कर वापिस जा रहीं थीं , मन बार बार भर आ रहा था जब तुम मुझे कम्बल ओढ़ातीं थीं , मुझे लेटे रहने की हिदायतें देतीं थीं , स्टीम्ड तौलिये से मेरी पीठ सेंकतीं थीं ....मेरा इतना ध्यान रखतीं थीं तो लगता था जैसे प्यार छलक छलक सा रहा हो अँधा क्या मांगे दो आँखें ...बीमार तो शायद यही ढूंढ रहा होता है
मैंने बहुत सोचा कि मैं क्या अपने स्वार्थ के लिए रो रही हूँ ....नहीं मगर मैं तो तुम्हारी  मुहब्बत के लिए रो रही थी बीमारी में अगर किसी की मुहब्बत साथ हो तो सुबह का रँग कुछ और ही होता है बीमारी जल्दी भाग जाती है ऐसे ही पलों में मैंने लिखा ...
 ऐ मुहब्बत मेरे साथ चलो 
के तन्हा सफ़र कटता नहीं  

 

दम घुटता है के
 साहिल का पता मिलता नहीं  

जगमगाते हुए इश्क के मन्जर 

रूह को ऐसा भी घर मिलता नहीं 

 
तुम जो आओ तो गुजर हो जाए 

मेरे घर में मेरा पता मिलता नहीं 

 
लू है या सर्द तन्हाई है

एक पत्ता भी कहीं हिलता नहीं 


ऐ मुहब्बत मेरे साथ चलो 

बुझे दिल में चराग जलता नहीं  


तुम्हीं तो छोड़ गई हो यहाँ मुझको 

ज़िन्दगी का निशाँ मिलता नहीं


लेटे लेटे मैंने तुम्हारी टेंथ के कोर्स की प्रेमचंद की लिखी हुई लघु कहानियों की किताब ' मानसरोवर ' भी पढ़ी , जिसे मैंने सालों साल सँभाल कर रखा था कि कभी वक्त मिलेगा तो पढूँगी और अब जब बिस्तर पर पडी हूँ तो पढ़ा ...इसके पहले ही पन्ने पर तुम्हारे हाथ से लिखा हुआ है ...प्रेम जीवन में सच्ची प्रसन्नता और विकास का कारण है ...Love ..the foundation of true progress and happiness.
ये कितना बड़ा सच है ...जिस कर्म की जड़ में स्वार्थ हो वो कभी सच्ची ख़ुशी नहीं देगा ...जिसकी नीँव में प्रेम हो वो स्वतः ही आनन्द का फल देगा ...बड़े बड़े कर्मों के पीछे प्रेरणा का स्त्रोत प्रेम ही होता है

एक और शिक्षा जो मैंने इस लम्बी बीमारी में पाई वो ये कि हर हालत पर कर्म से काबू पाने का मेरा विष्वास हिल सा गया है ; कर्म से भी कहीं ज्यादा महत्व-पूर्ण हमारा भाव होता है अहसास पर नियंत्रण मामूली बात नहीं है , पर यही सब कुछ है . . अहसास ही राई को पहाड़ बना लेता है और अहसास ही पहाड़ को राई बना सकता है ..मैंने दिन भर में कभी दस मिनट से ज्यादा आराम नहीं किया था ..अब ये चौथा महीना है ...वही  सूनी दीवारें है और छत पर टकटकी लगाए आँखें हैं दिन तारीख कहने को सब बदलते हैं पर मेरे हालात नहीं बदलते माँ  कहतीं थीं कार्तिक में पैदा हुए बच्चों का दुःख चीढ़ा होता है , आसानी से पीछा ही नहीं छोड़ता मैं जानती हूँ मेरे सारे घर को मुझे इस हालत में झेलना आसान नहीं रहा होगा .. ऐसे ही पलों में मैंने खुद को समझाते हुए लिखा ...
हड्डी हड्डी टूट जुड़े 
इन्सां का हौसला परवान चढ़े 
दूर खुदा बैठा ये सोचे 
किसके नाम का मन्तर  ये
 मेरे  जैसा काम करे 
जब तुम मेरे पास आ रहीं थीं मन ने तुम्हारे लिए एक कविता लिख ली थी
मेरी सोन चिरैय्या 
रँग में भी और ढँग में भी 
भीतर भी और बाहर भी  
उजली उजली प्यारी प्यारी 
मेरी नेह की छैयाँ 

आ बैठी घर की मुंडेर पर 
यादों के रँग बिखेर लिए 
धरती नाची , अम्बर नाचा
ता ता थैय्या , ता ता थैय्या 
 तेरी जीत पे सारा घर नाचा 
मेरी सोन चिरैय्या 

अम्बर की बाहें बुलाती लगें 
तू पँख फैलाये गाती लगे 
मन्द हवाएं छू आयें तुझे 
धीरे से मुझे सहलातीं लगें 
धूप सुनहरी आती लगे 
मेरी सोन चिरैय्या

तुमने देखी मन की महिमा कैसे ये कभी रोने लगता है तो कभी हँसने गाने लगता है जानती हो भाव ही मेरी पूँजी है , जैसे ही मैं लिखती हूँ तो जैसे कोई बदली बरस कर चली जाती है और आसमान खिल उठता है , बस वैसे ही मैं भी हल्की हो उठती हूँ
असीम प्यार के साथ 
तुम्हारी मम्मी 
3-जून-2012


गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

अन्डमान ( कैमरे की नजर से )



कारबाइन कोव बीच

सेल्युलर जेल की बाहरी इमारत

सेल्युलर जेल
लाइट एंड साउण्ड शो
पीपल के पेड़ की टहनियाँ दिखाई दे रहीं हैं ...जिसकी जुबानी आँखों देखी कही गई है ...ऊपर लाइट हाउस दिख रहा है जहाँ से चारों तरफ समुद्र में निगरानी की जाती थी ....
ये पहली कोठरी वीर सावरकर की , जिसके नाम पर यहाँ का हवाई अड्डा बना है ।

कानवाय में जारवा देखने के लिये घने जंगल की ओर जाते हुए ...

जारवा की फोटो न खींचने का नियम हम तोड़ नहीं सकते थे ...और अब पहुंचे बाराटाँग ....



लाइम स्टोन केव
मड वोल्केनो
हैवलॉक आयलैंड
सफ़ेद रेत , नीला पानी , इठलाती हुई नाव , समन्दर का किनारा , और कैमरे ने कैद किया ये हसीन नजारा ....
हमारी बीच साइड कौटेजेज
राधा नगर बीच

इसी तट से सूर्यास्त का नजारा

एलीफैंटा बीच की ओर

एलीफैंटा बीच

चल मन देसवा की ओर 

इससे निचली दो पोस्ट्स भी अन्डमान पर ही हैं .....सिर्फ चित्र यहाँ पर हैं  । 

अण्डमान , एक यादगार यात्रा

http://shardaa.blogspot.in/2012/01/blog-post_4265.html

अण्डमान , काला पानी या नीला पानी

http://shardaa.blogspot.in/2012/01/blog-post.html

























शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

अण्डमान , एक यादगार यात्रा

आठ साल पहले अन्डमान से वापिसी पर ये जरुर सोचा था कि जगह बड़ी सुन्दर है , हो सका तो कभी दुबारा यहाँ आयेंगे । मगर इतनी जल्दी आयेंगे , ये मालूम न था । हमारी व् बच्चों की छुट्टियाँ स्वीकृत हो चुकीं थीं , लक्ष-दीप जाने की योजना थी , एजेंट ने कहा सरकार और रिसौर्ट मालिकों के बीच एग्रीमेंट के झगड़े की वजह से अगाति की बुकिंग नहीं मिल पा रही , जैसे ही दिसंबर में कोर्ट का फैसला आएगा , बुकिंग कर ली जायेगी । हमारी छुट्टियाँ शुरू होने के दस दिन पहले एजेंट ने कहा कि इन तारीखों की टिकटें नहीं मिल सकतीं । अब सोचा कि चलो किसी और जगह घूम आया जाए । बच्चे साउथ में जाने के लिये बिल्कुल तैय्यार न थे । साउथ , गोवा , मुम्बई , कोलकाता , राजस्थान आदि जगहों के देशाटन का लुत्फ़ हम पहले ही उठा चुके थे । हिमालय दर्शन के बारे में सर्दियों में सोचा भी नहीं जा सकता । रह गया गुजरात , तो बच्चों को मंदिरों के दर्शन में कोई दिलचस्पी नहीं होती , ध्यान आया कि क्यों न अन्डमान ही चलें ; हैवलॉक आयलैंड और जारवा ट्राइब देखने के लिये जंगल की सैर , पिछली बार हमसे छूट गए थे । बच्चों से पूछा , खैर चाही हुई तारीखों की सारी व्यवस्थाएँ हो गईं ।
बेंगलोर से बेटियाँ , मुम्बई से बेटा , नैनीताल से हम लोग , सब चेन्नई में इकट्ठे हुए । इक्कतीस दिसम्बर की सुबह चार बजे पोर्ट ब्लेयर की फ्लाईट थी ।हमारी इकॉनोमी क्लास
की फ़्लाइट्स बहुत इकोनौमिकल हो गईं हैं । अरे ये क्या , फ्लाईट स्टीवर्ड्स तो दुकान ही लगाये खड़े हैं , पैसे ले कर चाय कॉफी नाश्ता पेश करते हैं ।
दुनिया के नक़्शे में भारत के नक़्शे के ठीक नीचे बँगाल की खाड़ी वाले सागर में उतर जाइए , तो करीब ३५८ छोटे छोटे टापू नजर आयेंगे , बस वही अण्डमान निकोबार द्वीपों का समूह है । यहाँ पहुँचने का रास्ता सिर्फ समुद्री व हवाई हो सकता है । चेन्नई व कोलकाता से सीधी उड़ानें हैं । पोर्ट ब्लेयर पर हवाई अड्डा है और यही यहाँ का सबसे ज्यादा क्षेत्रफल वाला व विकसित दीप है । थोड़ा पहाड़ी सा इलाका , ढलवाँ छतों वाले दूर दूर बिखरे से घर , सारे साल गर्म मौसम , ऊँचे ऊँचे नारियल व सुपारी के पेड़ , चारों तरफ समुद्री तट पर चलतीं ठण्डी हवाएँ यहाँ की खासियत है । यहाँ बसने वाले अधिकाँश दक्षिण भारत के व बँगाल के लोग हैं । यूनियन टेरिटरी होने की वजह से यहाँ दारु सस्ती है । खाद्यान्न से ले कर कारों तक सब चीजें समुद्री जहाज़ों में लाद कर यहाँ लाई जाती हैं , इसीलिए महंगी हैं । यहाँ कोई भिखारी नहीं पायेंगे ।
अण्डमान क़ी रफ्तार मुझे उतनी ही लगी जितनी आठ साल पहले लगी थी । अपने मेट्रो सिटीज की रफ्तार जिस अनुपात से बढ़ी है ....यहाँ सब शान्त सा लगा । कार्बाइन कोव बीच पर ' पियर लेस ' होटल , ' वेव 'रेस्टो रेंट आज भी उसी अन्दाज़ में खड़े थे जैसे आठ साल पहले देखे थे । हाँ यातायात के लिये जो सड़क समुद्री तट और इनके मध्य थी , उसे जरुर इनके पीछे की तरफ निकाल दिया गया है । शायद इस बीच सुनामी की वजह से ये सड़क कुछ क्षतिग्रस्त सी हो गई होगी । और हाँ इस बीच पर अब उतनी भीड़ भी नहीं दिखी ।
इस बार के ट्रिप में हमने पहले देखे हुए गाँधी पार्क , एक्वेरियम म्युजियम , एग्रीकल्चरल फ़ार्म , चिड़िया टापू , वाइपर आयलैंड , रॉस आयलैंड , नॉर्थ एंड बीच , चाथम सा मिल ( जो की ब्रिटिश राज्य के वक्त की सबसे बड़ी लकड़ी क़ी फैक्ट्री है व जो पास वाले आयलैंड पर बनी है और एक पुल से पोर्ट ब्लेयर से जुडी है ) और जॉली बाय आयलैंड को छोड़ दिया ।
सेल्युलर जेल का लाईट एंड साउंड शो हमने इस बार भी देखा । जॉली बॉय बीच जैसा बीच तो हम सिर्फ डिस्कवरी चैनल पर ही देख सकते हैं । नीला पानी , सफ़ेद रेत , सफ़ेद कोरल , पिंक , पीच स्टार फिश , पर्पल नीली पीली मछलियाँ , और कुछ भी मडी नहीं ; जैसे किसी और ही दुनिया में आ गए हों । स्नौर्क्लिंग , जिसमें तीस मीटर दूर की चीज भी बहुत करीब दिखती है , यहाँ का असली आकर्षण है । कहते हैं कि छः महीने के लिये जॉली बाय बीच खुलता है और छः महीने के लिये रेड स्किन आयलैंड पर जाना परमिट किया जाता है ।
पहले दिन यानि ३१ दिसंबर , बच्चे पार्टी चाहते थे । हमारे होटल में कोई पार्टी नहीं थी , कुछ और जगह पता किया , वहां सिर्फ वहीँ रुके हुए लोगों के लिये पार्टी थी । एक जगह कुछ म्यूजिकल शो था , , ड्राइवर ने कहा कि यहाँ फैमिली के साथ आना ठीक नहीं रहेगा । इसी शाम हमारे एक मित्र का बेटा हमसे मिलने आया , वो और उसकी पत्नी पोर्ट ब्लेयर में ही एविएशन में ख़ास ओहदों पर हैं । " क्या कर रहे हैं , अँकल हमारे यहाँ इन्फौर्मल पार्टी है , आइयेगा " उसने कहा । बस हमें क्या चाहिए था । बच्चों के मन की मुराद पूरी हो गई , झटपट तैय्यार । बच्चों ने नए साल का आगाज़ पोर्ट ब्लेयर के मिनी बे की पार्टी के डांस फ्लोर पर नाचते हुए किया ।
दूसरे दिन हम लोग कॉनवाय में जँगल में जारवा ट्राइब देखने निकले । तकरीबन दो घंटे जँगल में ड्राइव , हमारे आगे आगे डिगली पुर वाली बस जा रही थी , ढेरों गाड़ियाँ काफिले में ।कहीं कहीं हमें आदिवासी सड़क पर खड़े मिले । ऐसा लगा हम इन्हें देखने आए हैं या ये लोग पिंजरों में घूमते हम लोगों को देखने आए हैं । उनके चेहरों पर कोई भाव नहीं था , हमारी सभ्यता से कोसों दूर , सचमुच ऐसा लगा कि हम आदि मानव के युग में पहुँच गए हैं , उनके लिये हम अजूबा और हमारे लिये वो अजूबा । हम सोच भी नहीं सकते , आज के इतने विकसित युग में अन्डमान के कई द्वीपों पर अब भी मनुष्य उसी आदिम युग में जी रहा है ; जहाँ न भाषा का कोई मतलब है , न हमारे इतने सारे अविष्कारों का ।
एक बच्चा कबूतर मार कर उल्टा लटकाए खड़ा था , कुछ के पास तीर कमान थे , औरतों के पास कुछ खुरदरी सी टोकरियाँ पीठ पर लदी थीं । कुछ पुलिस वाले इन लोगों के बीच आते जाते हैं , जो इनकी भाषा समझते हैं । एक जगह तो दो पुलिस वाले और दो जारवा खड़े थे ,
जैसे पुलिस वाले इन्हें हमें दिखाने के लिये सड़क पर ले आए हों । ये अपनी पारम्परिक वेशभूषा में थे , कमर के गिर्द लाल लटकती कतरनों का बैन्ड निसंदेह वो कपड़े का बना नहीं था । यहाँ खाने पीने की चीजें व् कपड़े देना अब पर्यटकों को मना कर दिया गया है । पहले कुछ लोग कपड़े खाना छोड़ जाते रहे होंगे , इसीलिए कुछ औरतें व बच्चे शौर्ट्स ( निक्करें ) पहने दिखे । एक तेरह चौदह साल का बच्चा तो गांधी टोपी लगाए खड़ा था , भाव शून्य चेहरा , कंधे से आधी नीचे उतारी टी शर्ट पहने ...हमारे हाथ हिलाने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की उसने । एक पच्चीस तीस साल की युवती चलती गाड़ी के पास से गुजरी तो बच्चों के हाथ हिलाने पर मुस्कराई भी और होंठों के पास हाथ ले जाकर फ़्लाइंग किस भी दे मारी । ' अरे बेब , बेब ' बच्चे चिल्लाये , खूब हँसे ।


खाना कपडे देने पर रोक सरकार ने इसलिए भी लगाई होगी कि उनके शान्त और पारम्परिक जीवन में खलबली न मच जाए । विकास धीरे धीरे क्रम वार हो तो बर्दाश्त के अन्दर होता है । विकसित दुनिया का छल प्रपँच उन्हें किसी भी कगार पर ले जा सकता है । एक और कारण भी है जारवा के पर्यटन में ही सरकार लाखों रुपये एक दिन में ही कमा रही होगी ।
ये लोग बिलकुल अफ्रीकियों जैसे थे , बस बाल घुंघराले नहीं थे , बाल छोटे छोटे कटे हुए , पता नहीं किस चीज से ये उन्हें काटते होंगे । हो सकता है यहाँ की गर्म जलवायु के सीधे सम्पर्क में रहने की वजह से जारवा काले हो गए हों ।
जल्दी ही हम समुद्र तट पर पहुँच गए , जहाँ एक जहाज हमें बारा टाँग द्वीप ले जाने का इंतज़ार कर रहा था । सब गाड़ियों से उतरे और जहाज में चढ़ गए , हमारे आगे आगे चल रही बस भी शिप में चढ़ गई । करीब करीब आधे घन्टे बाद बारा टाँग के तट पर पहुंचे , यहाँ से छोटी नौकाओं द्वारा हमें लाइम स्टोन केवज दिखाने ले जाया गया । अगले तट पर उतर कर कुछ चल कर चूने की जो गुफाएं हमने देखीं वो पानी के जमने से बनी हुईं थीं , विभिन्न आकृतियों के रूप में सफ़ेद पत्थर सीं । हम नौका से ही वापिस बारा टाँग लौटे । यहाँ जीप से ' मड वौल्कैनो ' देखने गए । रह रह कर थोड़े बुलबुले उठते और थोडा कीचड़ बहता हुआ दिखता । वापिस तट की ओर गए । ये आयलैंड रिहाइशी था , जो बस पोर्ट ब्लेयर से आई थी वो यहाँ चल रही थी , शायद शाम तक वापिस लौट जाती होगी । तट पर दस बारह दुकानें थीं , भूख लग आई थी , यहीं दोपहर का खाना खाया ।
कुछ देर बाद शिप आ गया , हमारा ड्राइवर और सब पोर्ट ब्लेयर के उसी तट की ओर बढे जहाँ गाड़ियाँ छोड़ कर आए थे । दूर से देखा कुछ जारवा बच्चे समुद्र में नहा रहे थे । हम अपनी अपनी गाड़ियों में सवार हो कर फिर काफिले में जँगल के बीच से गुजरे । फिर कुछ और जारवा बच्चे आदमी औरतें देखे । कुछ बच्चे तो हमसे आगे चल रही गाडी को रोकने की कोशिश कर रहे थे , और इशारे से खाने की चीज मांग रहे थे ।
खैर रात तक हम वापिस होटल पहुंचे । लगा कि जारवा देखे बिना हमारी अंडमान यात्रा अधूरी ही रहती । आदि मानव और हमारे बीच युगों के फासले हैं । कुछ देर के लिये जैसे हम उसी युग में पहुँच गए थे , जहाँ न दिन न तारीखें होती हैं , जहाँ न मखमली बिछौने होते हैं , न कोई चोंचले होते हैं । उफ़ , जैसे समय की रील रिवाइंड कर दी गई हो । यकीन नहीं होता , मगर ये सच है कि आदि मानव आज भी अपने उस कच्चे खालिस रूप में उन द्वीपों पर उपस्थित है , जहाँ दुनिया की हवा ने उसे अपने से दूर रक्खा है ।
तीसरे दिन सुबह मैक्रूज़ से हैव्लौक आयलैंड के लिये रवाना हुए । रास्ते के दृश्यों में समुद्र में एक आयलैंड खत्म होता तो दूसरा शुरू हो जाता । हैव लॉक का क्षेत्रफल केवल पन्द्रह किलोमीटर है । मैक्रूज़ में ही हमें अण्डमान के विभिन्न द्वीपों पर बसे आदिवासियों के बारे में डॉक्युमेंट्री दिखाई गई । कुछ द्वीपों पर जाना मना है , ताकि उन पर बसे आदिवासियों के जीवन में खलल न पड़े । निकोबार आयलैंड के निकोबारी जाती के लोगों के लिये भारत की फोर्मर प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने घर व् पाठ शालाएं खुल्वाईं , उन्हीं के बीच के लोगों को शिक्षित कर के वहीँ नियुक्त किया और ग्रामोद्योग को विकसित किया । ओंगी जाति भी किसी द्वीप पर है ।
हैवलॉक से सिंगापुर की समुद्री दूरी केवल १५०किलोमीटर है । अंग्रेजों के भारत छोड़ कर जाने के बाद जल्दी ही जापानियों ने अण्डमान पर कब्ज़ा कर लिया था , कहते हैं बहुत खून खराबा हुआ था । खैर जल्दी ही कमान भारत के हाथ आ गई थी ।


यहाँ तट की ओर बनी कौटेजेज में हमें ठहराया गया , अद्भुत दृश्य था , सफ़ेद रेत के किनारे समुद्र में बंधी नाव , लहरों में हिचकोले खाती । जल क्रीडा और फोटो खिचवाने के लिये अद्भुत संयोग थे । दोपहर से शाम हमने ' राधा नगर बीच ' पर गुजारी । समुद्र में उठती लहरें , सूर्यास्त का नजारा , यहाँ की खुशनुमा यादें हैं ।
चौथे दिन सुबह ही हम स्पीड बोट से ' एलिफैन्टा आयलैंड ' की ओर गए । यहाँ स्नौर्क्लिंग , ग्लास बोट में ले जा कर मछलियाँ दिखाना , स्कूटर ड्राइविंग व् अन्य वाटर स्पोर्ट्स करवाए जाते हैं । यहाँ काफी हद तक जॉली बॉय बीच जैसा लगा । स्पीड
बोट से ही हम वापिस लौटेनाश्ता पैक करवाया , ग्यारह बजे हमें मैक्रूज से वापिस जाना थापोर्ट ब्लेयर पहुंचे , अब सिटी टूअर के नाम पर हमने मार्केट से कुछ खरीदाएक मंदिर में प्रवचन चल रहा था , सुना । ' पुलिस गुरु द्वारे ' गए , ये गुरुद्वारा एक मात्र ऐसा गुरुद्वारा है जिसका प्रबंधन पुलिस करती हैफिर पहुंचे हम अपनी चहेती कार्बाइन कोव बीच , जहाँ हम पहले दिन भी गए थे और अपनी आठ साल पहले वाली विजिट में जब हम ' हौर्न बिल नेस्ट ' में रुके थे , हर दिन गए थेपांचवे दिन सुबह ही हमारी वापिसी थी


अण्डमान का महत्व सिर्फ खूबसूरत और शांत होने की वजह से नहीं है , अपितु ऐतिहासिक दृष्टि से भी हैवाइपर और रॉस आयलैंड पर ब्रिटिश राज के वक्त की चर्च , क्लब और जेल के अवशेष , पोर्ट ब्लेयर पर सात विंग्स वाली , छोटी छोटी कोठरियों वाली , लम्बे मजबूत कुण्डों वाली तीन मन्जिली सेल्युलर जेल , जहाँ हमारे देश भक्त क्रांति कारियों को भेज कर उन से कड़ी मेहनत कराई जाती थी , मसलन नारियल से तेल निकलवाने के लिये कोल्हू पर बै की जगह आदमी को चलानाऔर जहाँ से कैदियों के लौटने की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि चारों तरफ था समुद्र , कड़ा पहरा और सख्त अनुशासनहमारे वीरों की यादें , खूबसूरत जलचरों की दुनिया के अलावा हमारे आदिम युग की झलकियाँ हमें सिर्फ यहाँ मिल सकतीं हैं


बुधवार, 18 जनवरी 2012

अण्डमान , काला पानी या नीला पानी

३१-दिसंबर-२०११

नीचे गहरे स्लेटी बादल जल्दी ही बर्फ के रँग में बदल गए , जैसे किसी ने मक्खन या क्रीम फेंट कर ऊँची-नीची सी चारों तरफ बिखरा दी होसामने हल्की पीली और नारंगी दो रँगों की लकीर सी सूर्योदय की तरफ अग्रसर होती हुई सुबह की सूचना दे रही थीप्लेन की खिड़की से दिखता अदभुत दृश्य थासुबह साढ़े पाँच से पौने छः के बीच का वक्त ....जल्दी ही बादलों के ऊपर धूप निखर आई थीपीली नारंगी रँग की लकीर अब गायब हो गई थीबस पन्द्रह मिनट बाद ही बादलों की मोटी परत को चीरता हुआ प्लेन अण्डमान निकोबार द्वीप समूह के ऊपर चक्कर काट रहा थाएक एक टापू हरा भरा चारों तरफ पानी से घिरा हुआ नजर रहा थायहाँ तक कि तट के किनारों की तरफ उठती हुईं समुद्र की लहरों को भी साफ़ साफ़ देख पा रहे थे हम

पोर्ट ब्लेयर यहाँ का एकमात्र ऐसा टापू है जिस पर हवाई अड्डा हैवीर सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा , ये नाम इसे इसलिए दिया गया कि वीर सावरकर महान देश भक्त और क्रांतिकारी यहीं सेल्युलर जेल में बंद रहेजेल की अँधेरी कोठरी पल पल आगे बढ़ती काल की आहट किसी का भी मन विचलित करने के लिये काफी होती हैकिस जज्बे से वो हर सख्ती का सामना कर सके और अपने साथियों के लिये जोश का एक उदाहरण बन सकेपोर्ट ब्लेयर की धरती ये कहाँ जानती थी कि इसी वीर सावरकर के नाम से हवाई अड्डा बनेगा और ये नाम हमेशा के लिये अमर हो जाएगा

जेल के प्रांगण में यहाँ आने वाले पर्यटकों की जानकारी के लिये रोज .३०बजे शाम एक लाईट एंड साउंड शो दिखाया जाता हैजिसमें बाईं तरफ उगे पेड़ की नजर से उस वक्त की आँखों देखी कहानी कही गई है , जो कि पुरी की आवाज में हैप्रस्तुति मार्मिक है , हमारी राष्ट्रीय धरोहर सेल्युलर जेल के निर्माण , ब्रिटिश राज और कैदियों पर सख्ती व् बर्बरता की कहानी के बारे में है

अण्डमान का कोना कोना खूबसूरत , जिस एंगल से भी फोटो खीचो , अदभुत ही होती है । इतनी खूबसूरत जगह और नाम दिया गया था काला पानीसच ही है अपने घर से दूर , अपनी धरती से दूर , जहाँ से कभी वापसी की उम्मीद ही न हो , जहाँ का नीला पानी कैदियों के लाल खून से काला नजर आता हो , उस जगह को और क्या नाम दिया जा सकता था

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मिटने वालों का , यही बस आखिरी निशाँ होगा

दूर दूर से आने वाले पर्यटक जब यहाँ इकट्ठा होते हैं तो किसी मेले से कम नहीं लगतामन जैसे द्रवित हो कर देश भक्ति से ओत प्रोत हो जाता है