गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

भाषा का गिरता स्तर

सड़क पर गुजरते हुए कुछ अठारह-बीस साल के लड़कों को बातें करते सुना।  वो अपनी भाषा में गालियों का प्रयोग बड़ी हेकड़ी के साथ कर रहे थे ; जैसे ये उनकी शान बढ़ा रही हों।  कम पढ़े-लिखे लोगों के साथ-साथ सभ्य बुद्धि-जीवी कहे जाने वाले लोग भी कम उद्दण्ड नहीं हैं।  हमारे फिल्म-जगत ने ऐसे किरदारों को भी पर्दे पर उतारा है। व्याकरण की त्रुटियाँ या भाषा की समृद्धि की बात तो दूर रही ; गालिओं का इस तरह धड़ल्ले से प्रयोग समाज को क्या सन्देश दे रहा है। भाषा का गिरता स्तर चिन्ता का विषय है।

आये दिन अखबारों में किशोरों की बढ़ती नशे की लत के बारे में , छोटी-छोटी बात पर तू-तड़ाका करने पर उतारू , हत्या-आत्म-हत्या करने तक से बाज नहीं आने के बारे में ख़बरें छपती हैं।  हमारे नैतिक मूल्यों का गिरना और दिशा भ्रमित होना ही इन सारी समस्याओं का कारण है।  आज हर कोई साम ,दाम, दण्ड ,भेद किसी भी जोर पर सबसे ऊपर खड़ा होना चाहता है।  बिना मेहनत किये जीवन के अर्थ ही गलत लगा लिए गए हैं।व्यक्ति को पता ही नहीं चलता कि उसकी कुण्ठायें उसे कहाँ ला के छोड़ने वाली हैं।  ख़ुशी क्या ज्यादा पैसा पाने से मिल सकती है ? पार्टी करना , मौज मस्ती करना ही जीवन का ध्येय नहीं है। मौज-मस्ती में भी आप हर किसी का ख़्याल नहीं रख सकते , और एक जरा सा खलल और सब मस्ती गुड़-गोबर हो जाती है।  

ये मायने नहीं रखता कि आपने ज़िन्दगी से क्या पाया ,कितना पाया या कितनी लम्बी ज़िन्दगी जी ; वरन ये मायने रखता है कि आपने कैसी ज़िन्दगी जी।  भाषा ज्ञान को अगर बाहरी आडम्बर मान भी लें , तब भी आन्तरिक गुणों को अभिव्यक्ति तो भाषा के माध्यम से ही मिलती है। कहते हैं कि किसी व्यक्ति की मात्र-भाषा या असली स्वभाव के बारे में जानना हो तो उसे थोड़ा सा क्रोध दिलाओ और फिर उसकी प्रतिक्रिया देखो।  अगर वो गालिओं में पला-बढ़ा है तो वो अपनी भाषा में गालिओं की बौछार कर देगा।  ये मत भूलें कि स्कूल से भी पहले की पाठशाला घर होता है।  घर व आस-पास का वातावरण ताउम्र प्रभावी रहता है। जो व्यवहार हम दूसरों से अपने लिये नहीं चाहते , वो व्यवहार हम दूसरों के साथ न करें।  

धरती पर जीव-जन्तुओं में मनुष्य ही अकेला ऐसा प्राणी है , जो बुद्धि-जीवी है।  सदियों से मनुष्य ने लम्बी विकास की राह तय की है। सभ्य-सुसंस्कृत समाज ने अपने माप-दण्ड तय किये हैं।  उन्हें निभाते हुए हमें आगे बढ़ना है।  भाषा शिक्षा हमारा मौलिक अधिकार भी है और व्यक्तित्व का सच्चा श्रृंगार भी है।  

शिक्षा सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान नहीं है ; हमारे अन्दर विवेक , उत्तर-दायित्वों , कर्तव्यों ,आचार-व्यवहार के प्रति जागरूकता पैदा करना भी शिक्षा का ध्येय है।  मनुष्यता के मौलिक गुणों के विकास में शिक्षा सोने पे सुहागे काम करती है। इसमें सन्देह नहीं कि भाषा हमारे जीवन मूल्यों का आईना है। शिक्षा , सँस्कार , ज्ञान के सामने ही दुनिया सिर झुकाती है।  

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

ढल जाती है जब उम्मीद

 अपने एक ब्लॉग का अवलोकन कर रही थी कि ट्रैफिक स्त्रोत देखा , कि किस किस जरिये से कोई उस ब्लॉग तक पहुँचा था ; गूगल सर्च पर की-वर्ड ' आत्महत्या कैसे करूँ ' लिख कर कोई मेरे उस ब्लॉग तक पहुँचा था , हालाँकि  मेरे ब्लॉग पर उसे मन को उठाने वाली सामाग्री ही मिली होगी।  बहुत दुख हुआ कि इस प्रवृत्ति पर अँकुश कैसे लगेगा। दुनिया से छुपा कर जो उसने नेट से शेयर  किया था , अगर किसी साथी से पूछता तो वो शायद उसे ज़िन्दगी का महत्व समझाता , उसके दुख को हल्का करता।  नेट और इन्सान में बहुत फर्क होता है।  नेट आपके खाली वक्त का साथी जरुर है , गूगल पर विषय से सम्बन्धित सारे ऑप्शन्स आ जायेंगे ;मगर सही गलत का निर्णय वो आपको नहीं करा सकेगा , वहाँ गर्मजोशी नहीं मिलेगी , वो जो दुनिया मिलेगी वो आभासी दुनिया है , आँख मूँद कर आप विष्वास नहीं कर सकते।  और हम अपनी जीती-जागती दुनिया से मुँह मोड़ कर सिर्फ वहीँ तक सीमित रह गये , तो क्या पायेंगे ? 

आत्महत्या का निर्णय लेना क्या आसान है ? ये तो अपनी परिस्थितियों से भागने का निर्णय है।  दुख में आकण्ठ डूबा हुआ मन ये नहीं देख पाता कि किन कारणों से वो इस स्थिति तक पहुँचा है।  आकाक्षाएँ या अपनी छवि से मोह हम छोड़ नहीं पाते हैं ; वही मोह जब ज़ख्मी होता है तो मन बगावत कर देता है।  जबकि जान है तो जहान है , न वक्त बदलते देर लगती है न ही मन की स्थिति बदलते देर लगती है।  इतना शक्ति-शाली शरीर मिला है , उस पर मस्तिष्क जो नेट पर बैठ कर सब कुछ खोज लेता है , उसे सिर्फ सही दिशा देने की जरुरत है। वो अपनी ही शक्तियों से अन्जान है।  अपना रिमोट उसने हालात के हवाले कर दिया है ; वो चाहे उसे जैसे चाहे नचा लें।  

एक खुला दिल लेकर ही वह अन्तर्मुखी से बहिर्मुखी हो सकता है।  खुले मन से सबका स्वागत ,दिनचर्या का अनुसरण करते हुए , सबको स्वीकार करते हुए , माहौल का हिस्सा बन कर रहने से.…… धीरे से मन उसी सब में वापिस रम जाएगा।  

कब ढलता है सूरज , दिन के ढल जाने पर 
ढल जाती है जब उम्मीद , समझो के शब हुई 

माना कि दुख की रात बहुत लम्बी होती है। मगर सबेरा तो हर रात का होता है।  अगर तुम सूरज के खो जाने पर आँसू बहाओगे तो अपने चाँद-तारों को भी खो बैठोगे।  इसलिये झिलमिलाते हुए अपने चाँद तारों को सहेजिये।  बहुत कुछ होगा जो आपकी तरफ आस से निहार रहा होगा , उसे ज़िन्दगी से भरपूर कर दीजिये।  

हो सकता है आप अपने गंतव्य तक पहुँचने में विफल रहे हों , या कुछ भी कैसा भी गम हो , सारी दुनिया वीरान सी नज़र आती हो ; ऐसे पलों में आपने जान लिया होगा कि ज़िन्दगी से भरपूर रहने के मायने क्या होते हैं।  कितनी भी विषम परिस्थितियों से गुजरे हों ,एक बार फिर से अपने शौक , अपनी प्राथमिकताएँ अपनी खासयितें तय कीजिये।  अपनी सौ प्रतिशत कोशिश इनमें लगा दीजिये।भटके हुए मन को दिशा मिलते ही दशा सुधर जायेगी।  

दरअसल ये तो अन्तर्मुखी से बहिर्मुखी होने की कोशिश है।  अगर आप फिर कभी ऐसी निराशाजनक स्थिति से गुजरना नहीं चाहते तो धीरे से अध्यात्मिक बदलाव से जुड़ जाइये ; जो आपको आपके अन्तर्मन और बाहरी दुनिया के बीच सामन्जस्य पैदा करना सिखा देगा।  

हर ज़र्रा चमकता है अनवारे-इलाही से 
हर साँस ये कहती है के हम हैं तो खुदा भी है 

कुछ पंक्तियाँ पेश हैं........ 

ज़िन्दगी भोर है , सूरज सा निकलते रहिये 
मन का दीप जला , रात के सँग-सँग बहिये 
हौसला , ज़िन्दादिली ,उम्मीद का रँग देखो 
उग आता है सूरज , इनकी बदौलत कहिये