मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

लगातार बढ़ती हुईं रोड रेज की समस्याएँ

 आज मामूली सी कहासुनी भी वाद-विवाद में बदल जाती है। राह चलते जरा सी झड़प भी कब हिंसा में तब्दील हो जाती है कि अन्जाम काबू से बाहर हो जाता है , कह नहीं सकते। इस भागती-दौड़ती दुनिया में हर कोई व्यस्त भी है और कई तरह की समस्याओं से जूझ रहा है। लगातार बढ़ते हुए ट्रैफिक और पार्किंग की समस्या भी मुँह बायें खड़ी है। व्यक्ति पहले से ही तनाव में है। न तो वो खुद को तनाव-रहित कर पाता है न ही और ज्यादा तनाव बर्दाश्त करने की क्षमता उसके पास बचती है। ऐसे लगता है कि जैसे वो बारूद के ढेर पर बैठा है ; बस चिन्गारी दिखाने भर की देर है कि बम सा फट पड़ता है। दूसरी बात वो किसी और को स्वीकार ही नहीं कर पाता।  अहम इतना ज्यादा है कि अपना हाथ ऊपर ही रखना चाहता है।  अपने तरीके से दुनिया को चलाना चाहता है। दुनिया के बीच ही नहीं घर में चार जनों के बीच भी टकराव ही मिलेगा। 

दृश्य की दूसरी साइड वो देख ही नहीं पाता।  कोई जान-बूझ कर हादसा नहीं करता।  जल्दबाजी , कम एक्सपर्टाइज ( अनुभवहीनता ) या फिर वही तनाव और उम्मीद टकराहट का कारण बनते हैं। फिर न कोई उम्र देखता है न इज्ज़त ; गलत हमेशा दूसरा ही होता है।अब लड़ाई में , अनर्गल गाली-गलौच में ,मार-कुटाई में वक़्त का कितना भी नुक्सान हो जाता है। और उस से बढ़ कर भी जो तनाव उसके मस्तिष्क की नसों ने झेला ; वो रात-दिन उसे सोने नहीं देगा। ये किसी को नहीं पता होता कि मामूली सी झगड़ा भी कत्ले-आम की वजह तक बन सकता है। 

बात को सँभाल ले जाना या बर्दाश्त कर लेना , ये तो समझ-दारी की बात है न कि कमजोरी की। अपने स्वाभिमान को सबके सम्मान के साथ जोड़ लें तो टकराव होगा ही नहीं ; या फिर कम से कम होगा। जरुरत है तो बस तनाव-रहित रहने की।  जिस तरह आप ट्रैफिक में गाड़ी बचा-बचा कर निकालते हैं ; उसी तरह अनावश्यक रूप से उलझने की बजाय अपने आपको बचा कर निकालिये। क्योंकि जिनसे आप उलझते हैं वो कम या ज्यादा आपकी सी ही मनो-दशा से गुजर रहे होते हैं। कोई भी भौतिक नुक्सान पैसे का या वक़्त का,आपकी मानसिक शान्ति या ज़िन्दगी से बढ़ कर नहीं होता। रुक कर जरा सोचें कि उलझ कर जो नुक्सान होगा ; उसकी भरपाई वक़्त भी न कर सकेगा। आप सारी दुनिया को सिखा नहीं सकते। सिर्फ वही बदलेगा जो आपकी बात सुनना चाहेगा। जोर-जबर्दस्ती या डण्डे के बल पर कोई बात अगर मनवा भी ली जाये तब भी दूरगामी परिणाम कभी अच्छे नहीं आते।  इतिहास गवाह है कि दबाने के साथ विद्रोह या बगावत के स्वर भी साथ ही उठते हैं। आवेश और उत्तेजना में कोई भी निर्णय सही नहीं लिया जा सकता। और ज़रा अपना चेहरा देखें कि क्या हाल हुआ है। क्रोध पर नियन्त्रण रखें तभी आप दूसरी तरफ के हालात देख पायेंगे यानि दूसरे के दृष्टि-कोण से भी सोच पायेंगे और रोड-रेज के कारण हुई क्षति पर लगाम लग पायेगी। 

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

नशा , ड्रग्स और एडिक्शन

वो बज़ आने तलक ग्लास पर ग्लास चढ़ाता जा रहा था। आज की युवा पीढ़ी या किशोरावस्था के बच्चे एल्कोहल , ड्रग्स या नशे के लिए प्रयोग की जाने वाली दूसरी वस्तुओं को बड़ी आसानी से ग्रहण कर लेते हैं। उसे सब्जबाग दिखाये जाते हैं कि पार्टी करना , मौज-मस्ती करना ही जीवन का ध्येय है।  और इस तरह वो इनके चँगुल फँसता है। गम गलत करने को यानि दुनिया से भागने को भी उसे यही इलाज दिखता है। दो चार बार लेकर ये जरुरत बनने लगता है और फिर इन्सान को एडिक्ट कर देता है यानि नकारा बना देता है। जैसे उँगली पकड़ कर पहुँचा पकड़ लिया हो उसने। अब वो किसी भी कीमत पर उसे पाना चाहता है। नशे के लिए चोरी ,सीना-जोरी सब सीखता है। 

ड्रग्स यानि नशा शारीरिक सेहत , मानसिक सेहत ही नहीं सोशल आस्पेक्ट्स पर भी असर करते हैं। शरीर के पोषक तत्व नष्ट होते जाते हैं। इम्युनिटी कम होती जाती है। गर्म तासीर की वजह से बिलरुबिन काउन्ट बढ़ता है तो लिवर को नुक्सान पहुंचने लगता है। मानसिक तौर पर शुरुआत में कन्सन्ट्रेशन की कमी होती है , सर दर्द ,पढ़ने में या किसी भी काम में मन नहीं लगता ; हर वक़्त वही धुन समाई रहती है।  अपनों से , सामाजिक कृत्यों से वो जी चुराने लगता है।  जिनके साथ ड्रग्स लेता है बस उनकी ही सँगत करता है।  समाज में लोग ड्रग्स लेने वालों का बहिष्कार करते हैं। बात-बात पर गुस्सा आता है , चिड़चिड़ाहट होने लगती है।  स्वाभाविक तौर पर अपनी जिम्मेदारियों से भागता है। 

युवा पीढ़ी की दलील होगी कि उसे इसमें ही ख़ुशी मिलती है। इस भ्रम से निकालना आसान तो नहीं , मगर नामुमकिन भी नहीं। जिस पार्टी मौजमस्ती की बात वो करते हैं वो तो कोई जूस पार्टी , फ्रूट पार्टी , भुट्टा पार्टी या पूल लन्च या डिनर मना कर भी पाई जा सकती है। ख़ुशी तो हमारे ख्यालों में होती है एल्कोहल या नशे में नहीं। इससे पहले कि बहुत देर हो जाये अपनी सेहत , अपने मन-प्राण सँरक्षित कर लो। अपने लिये नहीं तो अपने परिवार , अपने साथी और समाज के लिये खुद को और खुद की इमेज को बचा लो। दिल में कोई उदासी , फ्रस्ट्रेशन , नाउम्मीदी है तो उसे अपने परिवार के साथ शेयर करो।  हर डर का सामना करो वो भाग जायेगा।  ड्रग्स की खोज बीमारी में दवा की तरह प्रयोग करने के लिये हुई थी। ड्रग्स का व्यापार करने वालों ने अपने नफे की खातिर युवा पीढ़ी और कमजोर मानसिकता वालों को निशाना बनाया , क्योंकि वो ही आसानी से फँस सकते हैं। यानि आपका इस्तेमाल किया जा रहा है। ये जानलेवा भी हो सकता है।

जागो युवा पीढ़ी , इस भ्रम से बाहर निकलो। होशो-हवास खो कर भी कोई खुश कैसे रह सकता है।  ऐसी हालत में कुछ भी उन्नीस इक्कीस हो सकता है ; जिसका बाद में पछतावा हो और जीवन भर शर्म आये। अपनी क्षमता को पहचानो। अच्छे आचरण की मिसाल बनो। भविष्य इन्तिज़ार कर रहा है , अपनी नींव खोखली मत करो। 

इक अदद सूरज की तलाश है 
कर दे उजियारा जो मलिन बस्ती में भी    

सोमवार, 26 जून 2017

छूटते जा रहे दादी-नानी के घर

सभी लोग छुट्टियों का भरपूर लुत्फ़ उठाते हैं। पहाड़ों की हसीन वादियों का सफर हो या गोवा , महाराष्ट्रा , दक्षिण भारत या देश-विदेश के समुद्री तटों की सैर हो ; हर बार किसी नई जगह को नापने की इच्छा मन में जागती है। तरह-तरह के लज़ीज व्यँजन और रैस्टोरेन्ट्स का स्वाद मन को लुभाता है। पर्यटन को बढ़ावा देना व अपने विभिन्न प्रान्तों की सँस्कृति से परिचय देशाटन के जरिये जरूर सम्भव है। 

इंटरनेट ने घूमने-फिरने की सम्भावनाओं को सर्व-सुलभ और सुविधा-जनक कर दिया है। मगर इस सब में छुट्टियों में नानी-दादी के यहाँ जा कर लम्बी छुट्टियां मना कर आना बंद सा होता जा रहा है। छुट्टियों में बुआ , मामा , मासी , चाची , सबके बच्चों का जमावड़ा , साथ मिल-बाँट कर खाना , खेलना , काम करना और चौपाल जमाना , इस सब का मजा ही कुछ और था। दादी नानी के किस्से-कहानियों के साथ कब अच्छे सँस्कार बच्चों के दिल में उतर जाते ; पता ही नहीं चलता था। आज नेट और मोबाइल की दुनिया में डूबे बच्चे आभासी रिश्तों में जी रहे हैं। अपने आस-पास की जीती-जागती दुनिया से मुँह मोड़ कर कई बार हम अपने जरुरी काम भी पूरे नहीं कर पाते। शारीरिक खेल-कूद अब छूटते जा रहे हैं। वो अपनत्व , मजबूत भावनात्मक जुड़ाव ,जीवन मूल्य और प्रगाढ़ रिश्ते जैसे हम खोते जा रहे हैं। 

किताबें पढ़ने का वक़्त किसी के पास नहीं है। कोई भी देश अपने कविओं और साहित्यकारों की रचनाओं से समृद्ध माना जाता है।न तो आज किसी के पास पढ़ने का समय है न ही लिखने का। किण्डल , नेट और टी. वी. पर आँखें गढ़ाये बच्चों की आँखों पर चश्मा भी कम उम्र में ही चढ़ जाता है। 

गाँवों के चबूतरे अब सूने पड़े हैं। पार्टी करना आज भी सब बच्चों को पसन्द है ; मगर औपचारिकताएं ( फॉर्मेलिटी ) सबको आसानी से मिलने नहीं देतीं। बचपन उस अपनत्व और उन जीवन मूल्यों के बिना अधूरा है। कुल मिला कर हमने खोया ज्यादा और जो पाया वो ज्यादा सुकून नहीं पहुँचा सका।  

नई पीढ़ी के बच्चों ने नहीं देखा
धूप के रँगों को साँझ में घुलते हुए
हो गये हैं प्रकृति से दूर
खुद में उलझे हुए


कैसी होती है सुबह
नहीं देखा पूरब में सूरज को उगते हुए
नहीं देखा हवाओं को ,
चिड़ियों सा चहकते हुए


तुम्हारे घर में है भैंस , पेड़ ,
बिल्ली और बच्चे खेलते हुए
नहीं देखा शहरी पीढ़ी ने
जिन्दगी की खनक को गीत में ढलते हुए
नहीं देखा मिट्टी की सनक को ,
रूह में मचलते हुए
नई पीढ़ी के बच्चों ने नहीं देखा



बुधवार, 21 जून 2017

हर कोई अपनी-अपनी मनःस्थिति में जीता है

हम सभी लोग ज्यादातर अपनी अपनी परिस्थितियों के गुलाम हैं। ऐसा क्यों होता है कि कई बार किसी से बात करते हैं तो वो अचानक ऐसी प्रतिक्रिया देता है जो हमारी आशा के विपरीत होती है। हमें हैरान कर देने वाले नतीजों का सामना करना पड़ता है। किसी के दिल में क्या चल रहा है , कोई नहीं जानता।


हमारी अपनी पूर्व-निर्धारित धारणाएँ , सँस्कार ,आस्थाएँ और विष्वास हमें चलाते हैं। हमने धोखे खाये हैं तो सारी दुनिया के लिये एक ही दृष्टिकोण बना लेते हैं। अचानक विस्फोट जैसी प्रतिक्रिया ये बताती है कि उसका मन विक्षोभ से भरा हुआ है , और ये किसी एक दिन की सोच का नतीजा नहीं होता। किसी के बारे में हम एक बार कोई राय कायम कर लेते हैं तो फिर टस से मस नहीं होते। जबकि हमारा अपना मन पल-पल बदल रहा है। परिस्थितियाँ बदलते देर नहीं लगती , मगर हम पर कैसे-कैसे प्रभाव छोड़ कर जाती हैं।मकड़ी की तरह अपने ही ख्यालों के बुने हुए जाल में फँसना नहीं चाहिए। 

हमारी सकारात्मक भावनाएँ (इमोशन्स ) ख़ुशी , अपनत्व , प्रेरणा और प्रफुल्लता लाते हैं।नकारात्मक भावनाएँ द्वेष , झगड़ा , तुलना ,आत्म-हीनता का बोध हमेशा गुस्सा और उदासी लाते हैं। हर भावना एक केमिकल रिएक्शन करती है। हमारे शरीर में ऐसे केमिकल सिकरीट करती है जो हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता को प्रभावित करते हैं। नकारात्मक भावों के साथ सिर दर्द ,ब्लड-प्रेशर , डायबिटीज , मोटापा, गैस ,अल्सर , डिप्रेशन आदि तनाव जनित बीमारियाँ हो सकती हैं। कोई भी रोग हो नकारात्मकता के साथ तेजी से बढ़ता है। यदि भावनाएँ सकारात्मक हों तो बीमारी जल्दी ठीक हो जाती है। सकारात्मक सोच रखने वाले को बीमारी जल्दी पकड़ती ही नहीं। 

जब तक हम परिस्थितिओं , व्यक्तिओं , वस्तुओं के प्रति जैसी वो हैं , वैसा ही स्वीकार भाव नहीं रखते ; हम सहज हो ही नहीं सकते। जो सहज और सरल नहीं है वो खुश नहीं रह सकता क्योंकि वो बनावटी है ,उसका व्यवहार आडम्बर-पूर्ण है। सहजता ही तनाव-मुक्त रखती है। तनाव के कारण ही भूलने की बीमारी भी होने लगती है। मस्तिष्क में तनाव ने जगह घेर रखी है तो रचनात्मकता कैसे आयेगी।तनाव-रहित बुद्धि ही नये आइडियाज ,नई खोजें और क्रिएटिव काम कर सकती है। काम में परफेक्शन ला सकती है। ये वैसे ही है जैसे आपको यात्रा पर जाना हो और यदि आपकी हर वस्तु यथास्थान रखी है तो आप सूटकेस खोल कर अपनी वस्तुएँ उठा कर सूटकेस में रखेंगे और चल पड़ेंगे अपने गन्तव्य की ओर , कोई टेन्शन नहीं। मगर अगर सब गड्ड-मड्ड है तो आप घबरायेंगे। दरअसल ऐसा ही हमारे मस्तिष्क का हाल है , बहुत ज्यादा चीजें अपने-अपने खाने में नहीं हैं और हम घबरा रहे हैं। जो स्मृतियाँ आपको नकारात्मकता दे रही हैं  , उन्हें दिल से निकाल दीजिये , भूल जाइये , माफ़ कर दीजिये । लोगों की मजबूरियां होती हैं , बेबसी भी हो सकती है वो अपने अपने दृष्टिकोण से देखते हैं। उनकी भी कड़वी यादें हैं , वो भी भटके हुए हैं। उनके अपने सँस्कार  हैं। इसलिए अपने मन की डेस्क को साफ़-सुथरा रखें ,तभी मन शान्त रहेगा।जहाँ तक परिस्थितियों की बात है वो भी बदलती रहती हैं ; समझदारी से वस्तु-स्थिति को सुलझाइये। खुद को अशान्त रखना बीमारियों को दावत देना है। 

जिसे तुम आज दुश्मन मान कर बैठे हो , वो कल तुम्हारा दोस्त भी हो सकता है। ठीक वैसे ही जैसे जो कल तुम्हारा दोस्त था आज दुश्मन है। स्वीकार भाव से विचारों का मतभेद मिटाया जा सकता है। इस बात पर भरोसा रखो कि आदमी का मन बदलने में देर नहीं लगती। ऐतबार के दरवाजे खुले रखो। ऐतबार ही मन की खुराक है। अपनी ज़ुबान से सुकून ही बाँटो।ज़िन्दगी अनमोल है। कभी भी किसी अनहोनी का सबब न बनो।  इस जन्म को ,अपने होने को सार्थक करें।     


गुरुवार, 25 मई 2017

क्या साथ चलने का बहाना एक नहीं

साथ न चलने के सौ बहाने करने वाले 
क्या साथ चलने का बहाना एक नहीं  ?

जब रिश्ते में दरारें पड़ने लगतीं हैं तो ऐसा ही होता है। प्यार का पौधा भी पानी माँगता है। वही रिश्ता जो सबसे हसीन था वही कब चुभने लगता है कि नश्तर बन जाता है , पता ही नहीं चलता। वही साथी जिसके बिना रहा नहीं जाता था आज साथ रहा नहीं जाता ; सौ कमियाँ दिखती हैं। कितने ही कारण परिस्थिति-जन्य होते हैं जिनमें हम अपनी अज्ञानता से बढ़ोत्तरी कर लेते हैं। बात उतनी बड़ी नहीं होती, जितनी बहस से बड़ी हो जाती है , और फिर शब्द पकड़ लिए जाते हैं। किसी ने कुछ कहा और हम उसका एक्स-रे निकाल लेते हैं। हर बात में उसका कोई उद्देश्य ढूँढ लेते हैं , और फिर शुरू हो जाते हैं उसे गलत सिद्ध करने में। 

घर जब टूटने की कगार पर पहुँच जाते हैं , हम कितनी ही ज़िन्दगियों के साथ नाइन्साफी कर बैठते हैं। सिर्फ साथी नहीं , हमसे जुड़े सारे रिश्ते उसे भोगते हैं। अपनी आज़ादी ,अपनी ज़िन्दगी के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें करने से कुछ नहीं होता।  अगर आप अपना सँसार ही न सँभाल पाये तो आपके पास कुछ भी नहीं बचता। आप अपने ही दुश्मन बने हुए हैं ,ये वक़्त निकल जाने के बाद समझ आएगा। आप किसी भूचाल से गुजर रहे हैं , ये कहाँ जाकर थमेगा ,कह नहीं सकते। शादी के बाद बच्चे भी हैं और आप अलग होना चाहते हैं तो जरा सोचें कि उस बच्चे की क्या गलती थी जो आपके यहाँ पैदा हो गया। बचपन की हर बात गम की या ख़ुशी की , ताउम्र अपनी छाप छोड़ती है ; वही व्यक्तित्व बन कर उभरती है। एक फूल को आपने रेगिस्तान में किसके सहारे छोड़ दिया। जिसे एक समृद्ध बचपन देना था ,  उसके सारे हक़ ,अधिकार छीन लिये। बच्चा हमेशा अपने पेरेन्ट्स के साथ सुरक्षित महसूस करता है। कुण्ठित व्यक्तित्व अपने परिवार को क्या देगा , समाज को क्या देगा। वैसे भी अतीत सारी उम्र हावी रहेगा ,आप चाह कर भी ये सब भुला न पायेंगे। हम अपनी ज़िन्दगी के खुदा हो सकते हैं , बशर्ते परिस्थितियों का शिकार न बनें ,अपनी बागडोर अपने हाथ रखें।  

हम सब सॉरी बोलने से बचते हैं। छोटी-छोटी बातों में तो एटिकेट्स निभाते हैं , और रिश्ते बचाने में ' सॉरी ' बोलने से बचने के लिये सौ बहाने खोज लेते हैं।और हाँ , अब पहली-पहली सी कोई बात नहीं होगी। उम्मीदें और ईगो की वजह से ही क्लैश ( टकराव ) होते हैं। ईगो को ' न ' सुनना बिलकुल पसंद नहीं होता।जिसे हम स्वाभिमान समझते हैं , वो ईगो होती है।  ये सिर्फ तब जायेगी जब हम बड़ी ईगो से जुड़ेगें  ,साथी भी अपना आप ही है , अपने जीवन का हिस्सा। ऐसा समझेंगे तभी प्यार कर सकेंगे , माफ़ कर सकेंगे। क्या उस मीठे वक़्त की मीठी यादों का एक भी बहाना ऐसा नहीं है जो आपको साथ चला सके ? दूर जाने के सौ बहाने करने वाले , क्या साथ चलने का एक भी बहाना नहीं बचा है  ? 

एक खता पर ज़िन्दगी वारी 
होते न लम्हें इतने भारी 
हार जाओगे नसीब से लड़ते हुए 
ज़िन्दगी तुम्हें बख़्शेगी नहीं 
माज़ी तुम्हें कभी चैन से सोने नहीं देगा 
और तुम कितने सहिष्णु हो 
ये तय होगा ,जब सहेज रखोगे रिश्तों को 

किसी की भी राह में गुलाब नहीं बिछे होते , आपको अपनी राह खुद बनानी होती है। कई बार दोनों पक्ष एक पहल का इन्तिज़ार करते रहते हैं। एक पहल और बाँध टूट सकता है। कोई छोटा नहीं होता , इसे तो समझदारी कहेंगे। जो भरा होता है वही छलकता है। ज़िन्दगी को गले लगाना सीखें।  प्रगति कभी जिन्दगी से बड़ी नहीं हो सकती। संभालें अपने सफर को , अपने हालात को , जो आपको मिला है सहेजें उसको।

इश्क की आग से सबेरा कर लेना
ये सूरज सी आब रखता है
इसकी तपिश से है दुनिया का चलन
इस पर भरोसा कर लेना
ख्वाब सी है जमीन ,ख्वाब सा है आसमान
रेशमी से ख्वाब बुन लेना
चलना वैसे भी है,चाहत का मोड़ देकर
इक हसीन मंज़र देना

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

अपनत्व से चमकती निगाहें

सफर में साथी , समां और सामाँ सब तय है , सब वही रहेगा ; अब ये समन्दर की मर्जी है के वो भँवर में तुझे गर्क कर दे या ज़िन्दगी के किनारों पर ला पटके।  इस सारी छटपटाहट को अर्थपूर्ण बना। किस ओर तेरी मन्जिल और किधर जा रहा है तू। ऐ नादान मुसाफिर , अनमोल तेरा जीवन , कौड़ियों के भाव जा रहा है। इतना भी न कमतर समझना राहगीरों को , जगमगाता हुआ जीवन तेरे साथ चल रहा है। कौन जाने किस-किस पर है क्या-क्या गुज़री ; आधी-अधूरी धूप छाँव में ,किस के हिस्से क्या-क्या आया। मुंदी-मुंदी पलकों में सपने भी थे , बड़े अपने भी थे , ये और बात है मुट्ठी से वक़्त फिसलता ही रहा , सपनों की मानिन्द। 

अपनत्व से चमकती निगाहें माहौल में जान फूँक देतीं हैं। दिलासे ,बहाने सब छलावे से लगते हैं। किसी की पीड़ा कोई नहीं बाँट सकता। हाथ पकड़ कर चलता हुआ भी कितना सगा हुआ है।  मुसीबत के वक़्त देख लो क्या क्या टूटा हुआ है। बात इतनी सी है कि वक़्त चाहे जितना मिटा डाले ;जीने के लिये बहाना तो चाहिये।  अँगारों पे नींद किसे आती है। मुस्करा कर कोई जो साथ चले , पल भर में ज़िन्दगी सँवर जाती है।