सोमवार, 14 दिसंबर 2009

लेखन , जैसे जीवन को एक प्रवाह


किसी शायर ने क्या खूब कहा है
दर्द जब हद से गुजर जाए , दवा होता है
मन में ये सवाल उठता था कि ऐसा कैसे हो सकता है , दर्द में तो दिल टूटता है , इन्सान ऐसी परिस्थिति तक से भागता है , फ़िर वही दर्द दवा बन कर उपचार कैसे कर सकता है ! महादेवी वर्मा ने क्या खूब कहा है -
' अभिशाप भी है वही कला , जो करती दर्द निवारण है
मेरे दुःख का साथी ही , मेरे दुःख का कारण है '

वही साथी जो दुख दूर करने वाला था वही अब दुख का कारण बन जाता है , तो क्या वही अभिशाप अब दर्द निवारण भी करेगा ? इसी कड़ी में आगे बढ़ते हैं , सुमित्रा नँदन पन्त ने कहा है -
' आह से निकला होगा गान
वियोगी होगा पहला कवि '

तो क्या सचमुच ठोकर सृजन की ओर ले जा सकती है ? वही मन जो दर्द से तड़पता है , बिखर कर रोता है , दुनिया छोड़ने की बातें करता है ; इसे सबक मानने को कतई तैयार नहीं होता | अब ऐसे तो जिंदगी कटती नहीं , दुख से भारी मन जीवन क्या चलायेगा ! ऐसी हालत में ज्यादा दिन कोई नहीं रह सकता , क्योंकि आत्मा का स्वभाव ही सहज , सरल और खुश रहना है , और तनाव रहित भी हम तभी रह सकते हैं जब मन पर कोई बोझ न हो | अब इस नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक में बदल लेने का सबसे अच्छा उपाय लेखन है | कविता , कहानी , लेख , संस्मरण कुछ भी लिखने में अनुभव आपकी मदद करेंगे | जिसने दर्द को जितना गहराई से जिया हो या महसूस किया हो , वही उस व्यथा को तीव्र सशक्त माध्यम से व्यक्त भी कर सकता है |सिर्फ़ दर्द नहीं , प्रणय निवेदन , प्रकृति की छटा या कैसे भी प्रसन्नता के पलों को जितनी संजीदगी से उसने जिया है , अभिव्यक्ति दी जा सकती है |
दर्द जब हद से गुजर जाए , दवा होता है
दिल टूटा इश्क में तो जार जार रोता है
फ़िर बताओ गम कैसे हवा होता है
दर्द नगमे गढ़ कर जब हर्फों में बयाँ होता है
वजह जीने की बन कर वो दवा होता है
इक नया साथी सा वो दुआ होता है

कोई प्रेम के आसरे से जी लेता है , कोई कर्तव्य , अधिकार , आशा के सहारे से जी लेता है | सही अर्थों में कर्म पर आश्रित होकर जिया जाता है | लेखन जैसे जीवन को एक प्रवाह दे देता है , दुख के सागर को एक दिशा मिल जाती है और जीवन नियंत्रित होने लगता है | सही कहते हैं जीवन चलने का नाम |

रविवार, 6 दिसंबर 2009

मुक्तेश्वर की पहाड़ियों से



मुक्तेश्वर की पहाड़ियों से सूर्योदय का व दूर हिमालय की पर्वत श्रृंखला का अनुपम दृश्य , २२ नव २००९ ..




चाह कर भी मन के दृश्यों के अलावा प्रकृति पर नहीं लिख पाती , बस कोशिश भर की है ...



दूधिया बर्फ की चादर ओढ़े
चाँदी जैसा रँग हुआ है
पहली किरण सूरज की छूकर
हिमशिखरों का मान बढ़ा है

अलसाई सुबह भी झटपट
आँखें खोले विस्मय में है
हुई प्रकृति है मेहरबान
उपहारों का द्वार खुला है

कहीं हरीतिमा , कहीं लालिमा

सपनों का सा रँग हुआ है
रँग सुनहरी किरणों का और
चन्द्रकिरण सा सिरमौर हुआ है

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

सूरज के हिस्से धूप है


जब कोई निश्छल मन किसी की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाये और उसके लिए ह्रदय का द्वार खुले , कोई उमँग से उसका स्वागत करे ......? शायद किन्हीं ऐसे ही पलों में अमृता प्रीतम ने ये पंक्तियाँ लिखी होंगी ........


सूरज देवता द्वार पर आ गया
किसी किरण ने उठ कर स्वागत न किया


अपनी अल्हड़ सी उम्र में इसे पढ़ कर कुछ समझ तो नहीं आया था .....हाँ कुछ रीता रीता सा महसूस हुआ था .....,...पर आज जब समझा है तो बहुत टीसता है | हर लिखने वाला अच्छी तरह जानता है कि उसकी रचना का जन्म कहाँ , किससे और किन हालात में हुआ , वो कितनी मौलिक और कितनी उधार की है | एक बार ब्लॉग पर ही पढ़ा था कि इन्सान नया कुछ नहीं लिखता , पुराने लिखे से ही विचार लेकर उसको नए सिरे से लिखता है | जो मैं लिखने जा रही हूँ वो अमृता प्रीतम की इन्हीं दो पंक्तियों और भोले मन की रोज रोज की टूटन का नतीजा है .......


अपना सा मुँह ले के लौटा है सूरज
किरणों से उठ कर स्वागत न हुआ
द्वार पर आया जब सूरज
सूरज का सत्कार न हुआ
कैसे भूले अपनी फितरत को
सूरज है सुबह , आशा ,
निश्च्छलता और निष्पक्षता का नाम
मत सिखाओ दुनिया का चलन
न ये क़ैद होगा अँजुरी में
न होगा तब्दील अन्धेरे में
थक जाता है सूरज भी मगर
कब किरणों की चुहल से आज़ाद हुआ
सूरज के हिस्से धूप है
' छाया ' न सूरज का नसीब हुआ
बदल देता किस्मत सूरज
किरणों से ऐतबार न हुआ

सोमवार, 9 नवंबर 2009

खिल जाए हर मन की कली

दिवाली गुजरे तो बहुत दिन हुए , कल उसी बेटे का बीसवाँ जन्मदिन , जो दिवाली वाले दिन बड़े संभाल कर इस दिये को दिल्ली से घर लाया और ख़ुद अपने हाथों से इसमें तेल डाल कर , बत्तियाँ लगा कर जलाया भी उसी ने |मन बेतहाशा खुश हुआ कि वो अन्तर्मन से एक खुशी के साथ साथ एक जिम्मेदारी से जुड़ा.....कहने सुनने में ये बातें भारी लगती हैं , इन्हें शब्द देना भी मुश्किल सा ही लगता है , पर है तो सच्चाई ही | फ़िर उसकी बहनों ने दिये के और उसके फोटोग्राफ्स खींचे ....|

नन्हा दिया कह रहा है

खिल जाए हर मन की कली

निखरा हूँ मैं जिस तरह

हो दिया बाती का मेल

इस तरह हर गली

मुस्कराएँ साथ मिल कर

उत्सव हो हर घड़ी

पकडें जो हाथ मिल कर

हो सदा ही दीवाली

सँदेश इतना है

मन चुक जाए

तम की हो जब जब साजिश

प्रेम का हो तेल

सहयोग हो साथी

लगन की हो अगन

दूर जहाँ तक जाती हो नजर

ज्ञान के हों दीप जगमगाते

धैर्य से झिलमिलाते

आलोकित हो जाता पथ

खिल जाए हर मन की कली

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

कैसा हो लेखन



कहते हैं लेखन सामयिक हो तो ज्यादा ध्यान खीँचता है | जब ज्यादा वर्तमान पर लिखा जाता है तो ऐसे में ज्यादा तुलना होने की वजह से पहचान बनाना और मुश्किल है | फ़िर बारी आती है सनसनी-खेज , हैरत-अंगेज घटनाओं पर लेखन की | ऐसी घटनाएँ अचानक होती हैं , आप पैदा नहीं कर सकते |
लिखते वक्त ये सावधानी जरुर बरती जानी चाहिए कि लेखन सत्य पर आधारित हो , सत्य अपने आप में ही दमदार होता है बाकी चमकाने का काम आप कलम से कर लें | कविताओं में तुकबन्दी या छंदबद्धता या लय के लिए कभी सत्य से समझौता न करें | मानव स्वभाव या प्रकृति की समझ ही कविता की जान हो सकती है | इसलिए मूल भाव या जड़ को नजर-अन्दाज़ न करें |
सबसे अच्छा है जैसा आप सोचते हैं वैसा लिखें | क्यों न हम सोचें भी वही जो लिखने लायक हो , जब लिखें तो मन को शर्म से आँख न झुकानी पड़े , दुनिया से नजर न चुरानी पड़े | एक शब्द का कमाल ही हम अपने चारों ओर निजी जिन्दगी में भी और लेखन में भी देखते हैं | शब्द लाने वाला होता है हमारा भाव या विचार | कितना अर्थ-पूर्ण है विचार , एक विचार चेहरा तमतमा जाता है और एक विचार झील जैसे शान्त चित्त में हौले से डुबकी लगा कर आता है | जैसा शब्द दुनिया को देंगे , वैसी ही प्रतिक्रिया पलट कर पायेंगे | शब्द खाली नहीं जाते , टकराते हैं या सँगीत बन जाते हैं |
क्रिया होगी तो
प्रतिक्रिया होगी ही
शब्दों की गूँज
पलट कर आयेगी ही
जन्म लेने से पहले
गला घोंटना नहीं होता
बीज मिट्टी में वही डालना
जो लहलहाये तो
सितारे झिलमिलाते हों
कुछ ऐसा कर
कि खामोशी के भी
फूल झरते हों
अनुगूँज के पर निकल आयें


सिर्फ़ चाहने से हमारा लेखन अच्छा नहीं हो सकता , हाँ ईमानदारी के साथ लिखने से कुछ ऐसा जरुर होगा जो यादगार हो , दुनिया याद रख सके , यही वो दुर्लभ चीज है जो प्रकाश की तरह हमारा पथ आलोकित भी कर सकती है और हमारी ताकत भी बन सकती है |

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

खुशी क्या चीज है


हम सोचते हैं ये कर के या वो पा कर हम खुशी पायेंगे | और उसके बाद क्या खुशी टिक रहती है ? फ़िर कुछ दूसरा , कुछ नया , कुछ बड़ा करने या पाने की चाह सिर उठाये खड़ी हो जाती है | रहते हम अतृप्त ही हैं | जब तक इच्छा रहती है , तब भी खुशी नहीं रहती और इच्छा पूरी होने के बाद भी तृप्ति नहीं है |

खुशी है किस चिड़िया का नाम , ये एक मुंडेर पर बैठी क्यों नहीं रहती ? खुशी तो मन की अवस्था है , जिसे हम बाहरी चीजों और कर्मों से जोड़ लेते हैं | ज्यादा चीजें या पैसा पाने से खुशी नहीं मिलती , खुशी मिलती है ख़ुद को पहचान कर अपनी जरूरतों के अनुरूप लक्ष्यों को पाने से | इसलिए हमें ये समझ लेना चाहिए कि हमारा शरीर , शरीर मात्र नहीं है , शरीर को चलाने वाला प्रकाश भी है। जो ख़ुद ऊर्जा है , दूसरों को भी ऊर्जा से भर सकता है | इस सँसार में हम जहाँ हैं उस परिवार में , समाज में जो हमारे कर्तव्य हैं , उत्तरदायित्व हैं उन्हें पूरा करने में खुशी जरुर मिलती है | खुशी बांटने से खुशी बढ़ती है | सिकुड़ कर बैठ जाने से खुशी आने जाने के सारे रास्ते बन्द हो जाते हैं , और हम अपनी ताकत भी भुला बैठते हैं | खुशी है तो हमारे अन्दर ही , बस उसका फव्वारा फूटने की देर होती है , वो ऊर्जा आयेगी तो बाहर ही  ...

कीर्तन कभी अकेले बैठ कर करो , कभी सबके साथ
उम्र त्यौहार है और खुशी सौगात
आओ ले लें इसे हाथों -हाथ

...

सोमवार, 3 अगस्त 2009

पहली बार मँच पर


३१ जुलाई , हमारे बैंक का स्थापना दिवस मनाया गया , इस अवसर पर बैंक के परिवार के लोग अपनी अपनी प्रस्तुति भी पेश कर सकते हैं , मुझे भी कहा गया कि कुछ कवितायें पढ़ कर सुनाई जायें | मेरे लिए यह पहला बड़ा मँच था अपनी रचना प्रस्तुत करने का , कुछ बार ईनाम देने के लिए तो मँच पर गई थी , मगर रचनाकार की तरह इतने सारे लोगों के सामने , सचमुच खून सिर की तरफ़ दौड़ने लगता है | मेरे कविता लेखन की उम्र ही ढाई साल की है , हाँ अनुभव की परिपक्वता मेरी उम्र से आँकी जा सकती है |


मैनें किसी से कुछ कहा , मगर एक अनुभव सम्पन्न दोस्त ने कहा , किसी से आँख मिलाना , बस | मेरे एक रिश्तेदार ने एक बार मुझे किसी से मिलवाया था जो व्यक्तित्व विकास पर व्याख्यान देते थे और उनकी किताबें भी बहुत प्रचलित हैं , उनका कहा याद आया कि हम तो जब मँच पर जाते हैं , किसी को कुछ नहीं समझते , ये सोचते हैं कि ये सब लोग हमें ही तो सुनने आए हैं | उन्हों ने कुछ और कठोर शब्द प्रयोग किए थे जो मैं लिखूँगी नहीं | मैंने सोचा ये तो ख़ुद को धोखा देना है , आत्मविश्वास तो सहज रहने में है , किसी को कुछ समझने से अहंकार बढ़ेगा , वो परम -पिता जिसने मुझे लेखनी का उपहार दिया है वो जरुर नाराज हो जाएगा | और फ़िर मैंने सोचा कि सारे उपस्थित जन मेरे पिता यानि खुदा के बच्चे हैं , वही नूर जो मुझमें है , वही सबमें जगमगा रहा है | जो सामने हैं वो मुझसे अलग नहीं हैं | मेरे पिता ने आज मुझे मँच पर भेजा है , ये उसकी इच्छा है , इसे आत्म-विष्वास के साथ सहजता से पूरा करूँ | बस दो-चार पंक्तियाँ लरजती आवाज में , फ़िर कोई बेगाना-पन नहीं लगा |


हमारे बैंक वालों की प्रस्तुति के बाद एक व्यवसायिक ग्रुप को भी बुलाया हुआ था , उनकी प्रस्तुति देखकर मैं सोच रही थी , वो किसी की तरफ़ भी देख नहीं रहे , माइक पकड़े कभी पीछे मुड़ते हैं , कभी किसी वाद्य वाले की तरफ़ निर्देश देते हुए ताल ठोकते हैं , जबकि उनका संगीत तो पहले से ही तय रहता है , ये उनकी शारीरिक हाव-भाव, यानि भाषा आत्म-विष्वास झलकाने के लिए होती है | किसी किसी को देख कर ऐसा लगा , जो गाना वो गा रहे हैं , उसमें उन्होंने कुछ ऐसा काल्पनिक माहौल गढ़ लिया है , जिसमें वो डूब कर गा रहें हैं | जोर-जोर का संगीत और खुले गले से गाना


'तुझे देखा तो ये जाना सनम , प्यार होता है दीवाना सनम '


'कोई जगह नई बातों के लिए रखता है


कोई दिल में यादों के दिए रखता है '


माहौल में एक ऊर्जा भर गई | मेरा ध्यान तो गीत गाने वालों के हाव-भाव और गीत के बोल यानि रचनाकार पर था , कितनी सुन्दर बातें कह जाते हैं गीत के माध्यम से !

सोमवार, 13 जुलाई 2009

माहौल का हिस्सा बन कर जियें


किसी भी विपरीत परिस्थिति का सामना आप आसानी से कर सकते हैं यदि आप पूरी तन्मयता से उसका समाधान खोजने में जुट जाते हैं | आप सोचते हैं कि दूसरे लोग मुझे कहें या बिनती करें तभी मैं उस काम को करुंगा , यानि आप मानसिक रूप से उस माहौल से परे हैं , आपके अन्दर स्वीकार भावः है ही नहीं | जब अस्वीकार भावः रहता है , तनाव साथ ही आ जाता है |


एक ही युक्ति है कि आप सबको अपना समझें , सामने जो भी परिस्थिति आये , हर वक़्त इस बात के लिए तैयार रहें कि आप उसे सकारात्मक लेते हुए अपनी तरफ से वो सब करेंगे जो आपकी पहुँच के अन्दर है | याद रखें ये आप दूसरों के लिए नहीं अपने लिए कर रहे हैं | दूसरों के लिए किये गए कर्म में आप फिर उम्मीद लगा लेंगें | वैसे भी ये स्वीकार भाव आपको ही खुशी देने वाला है |


किसी भी समस्या के वक़्त उससे भागने से अच्छा है , उस माहौल का हिस्सा बन कर जियें | समस्या चाहे आपकी हो या किसी और की , अगर आपके सामने आई या आपकी जानकारी में है तो आपका कर्तव्य बनता है कि आप उससे हर सम्भव तरीके से निपटने की कोशिश करें | सामना करते वक़्त , यानि आप पलायन नहीं कर रहे , ये खुद में ही एक सकारात्मक प्रतीक है ; साहस , अपना-पन , स्वीकार-भावः स्वतः ही आपके पास चले आयेंगे |


ज़रा सोचिये , वस्तुस्थिति से भाग कर हम कितनी नकारात्मक ऊर्जा पैदा करते हैं , अकेले बैठ कर कुढ़ते हैं , दूसरों से नाराज रहते हैं और हमारा व्यक्तित्व , वो भी यही सब दर्शायेगा | स्वीकार भावः , अपनापन होने से आप एक अजब विष्वास से भर जायेंगें | जितना ज्यादा परिस्थितियाँ आपके विपरीत हों , भागने की बजाय आप उस माहौल का हिस्सा बनने की कोशिश कीजिये , अपने कर्तव्य हमेशा याद रखें , अपने साथ ईमानदार रहें | इसी ईमानदारी के फलस्वरूप आपका आचरण कभी आपको कटघरे में नहीं खड़ा कर पायेगा | खुशियों के मौकों पर तो ऐसा लगेगा जैसे झूमती हुई खुशियाँ आपके ही दरवाजे पर दस्तक दे रहीं हैं , छम-छम करती हुई और आँगन नाच रहा है |


सोमवार, 6 जुलाई 2009

शब्दों में कह रहा है


किसी भी मुहँ से उसका बखान हो , क्या फर्क पड़ता है , बस समझ में आये .....अनुभव कर सकें | शब्द देने वाला कौन .... प्रेरणा देने वाला वही , रास्ता दिखाने वाला वही ...

शब्दों में कह रहा है अशब्द अपना रूप
इतने रूपों में बह रहा है वो एक ही अरूप


कितना है अव्यक्त वो आँखों में देह की
व्यक्त है वो बस बन्द आँखों में नेह की


निः शब्द होता मन तो मिलता असीम से
प्रतिध्वनित होता ब्रह्म तो आत्मा की पहचान से


उत्सव है साँस-साँस पर अशब्द की मुरली की तान पर
आँख-कान बन्द हैं अशब्द की गाथा के गान पर


बुधवार, 24 जून 2009

दुःख का असर कैसे न लें


जब कोई कुछ बुरा कहता है तो गुस्सा आता है , जब उसने कहा है तो कैसे असर न लें ? इस प्रश्न का उत्तर ये हो सकता है कि जो कुछ उसने कहा उसे कौन सुन रहा है ? मेरा कान , है न , क्या मेरा कान ही मैं हूँ ? नहीं , कुछ इस शरीर से अलग शरीर के अन्दर ही है जो सुन रहा है , यानि आत्मा वो नूर जो परमात्मा से अलग होकर इस शरीर को धारण किये हुए है | आँख , नाक , कान , पूरा शरीर तो साधन मात्र है | जब मैं सिर्फ शरीर हूँ ही नहीं , मैं तो एक नूर हूँ तो बाहरी सुख दुःख का असर मैं अन्दर गहरे आत्मा तक क्यों उतार लेता हूँ ?


आत्मा में बहुत ताकत होती है | मन क्योंकि नीचे की तरफ लुढ़कना ही जानता है और हमें बहका लेता है , इसी वजह से अपनी ताकत को हम भुला बैठते हैं | शरीर के सुख दुःख या किसी के कहने सुनने की वजह से हुए क्लेश प्रारब्ध वश आयेंगे ही , मगर हम उनके वश में होकर अपनी जिन्दगी को और जटिल तो नहीं बना रहे ? ये तो एक गुजर जाने वाला शो (नाटक) है , हम इसे जितना हो सके सुगम बनायें |


एक और तरीका है , दुःख से अलग रहने का , दूसरे ने जो कुछ भी कहा उसके पीछे कारण देख सकने वाली दृष्टि को पैदा कर लें | ये कारण कुछ भी हो सकते हैं जैसे अज्ञानता , तथ्यों से अवगत न होना , तनाव-ग्रस्त होना , असुरक्षा की भावना , अपने आपको सुरक्षित तरफ रखने का रवैया , आडम्बर-पूर्ण जीवन या फिर चालाक लोगों के संपर्क में आ कर उसका दृष्टिकोण ही भटक चुका हो | हमारे व्यक्तित्व की खामियों के लिए जिम्मेदार एक बहुत बड़ा कारण है असुरक्षित बचपन | जब ये देख सकने वाली आँख यानि नजर पैदा कर लेंगे तो दूसरे पर गुस्सा नहीं आएगा , करुणा आयेगी | हो सके तो उसे बदलने की कोशिश करें , इसके लिए उसे सचेत करते हुए थोडा गुस्सा भी करना पड़े तो ऊपरी तौर पर करें मगर इस गुस्से को अपने अन्दर उतार कर हलचल मत मचानें दें |


मेडिटेशन का मतलब तो पता नहीं , पर हाँ मुझे पता है दूसरे को माफ़ कर देने से अपना मन शान्त रहता है और ये किसी भी तरह से समाधि से कम नहीं है |


कितने भी असहनीय दुःख आयें ये मत भूलें कि परमात्मा उसी तरह हमें संभाले हुए है जिस तरह एक कुम्हार बर्तन को सही आकार देने के लिए बाहर से ठोकता है मगर अन्दर से दूसरे हाथ से हौले-हौले थपकियाँ देकर सँभाले रहता है और टूटने से बचाए रखता है | ये थपकियाँ हैं हमारी जीवनी-शक्ति , प्राण-शक्ति .....परमात्मा का प्यार .....|

सोमवार, 8 जून 2009

इमोशनली ईडियट या इमोशनल फूल


इमोशनली ईडियट या इमोशनल फूल ये शब्द हिन्दी में हमारी बोलचाल की भाषा में रच बस गए हैं | इन्हें अगर हिन्दी अर्थ में बोलेंगे तो ख़ुद ही फूल नजर आयेंगे | अति भावुकता के वश होकर काम करने वाले को लोग इसी नाम से बुलाते हैं |


मकैनिकल होकर ऊपरी तौर से देखें तो सब छोटे और संवेदन-शील दिखाई देते हैं | संवेदनशीलता परिस्थितियों , समय महत्वाकांक्षाओं के कारण भिन्न-भिन्न होती है | हर आदमी के अपने कारण हैं , संवेदनशीलता का कोई माप-दण्ड नहीं है | ऐसा नहीं है कि उच्च वर्ग के पास संवेदन-शीलता नहीं है , उनकी अलग अलग परिस्थितियों में अलग-अलग संवेदनशील प्रतिक्रियाएं हैं | जब दिल है तो लहरें भी होंगीं , लहरें हैं तो गतिमान भी होंगीं | उन्हें नियंत्रित करना होगा , मशीन बन कर तो कोई नहीं आया | बस लहरें समन्दर बन कर सब कुछ बहा ले जाएँ , ये ध्यान रखना होगा |


सीने में है जो मुट्ठी भर गोश्त का टुकड़ा
उसको बस तेज धड़कने के सिवा आता क्या है
आँधी-तूफानों से लय मिला कर
बहकने के सिवा आता क्या है


ये भी सच है कि बिना भाव के जीवन रस हीन है | कवि लेखक तो खासकर अपनी संवेदनाओं को सृजन की दिशा दे लेते हैं | अब इसे समाज कुछ भी कहे , ये संवेदनाएं हैं तो उनके नियंत्रण में ही | वे किसी को नुक्सान भी नहीं पहुँचा रहे | समाज का यही वर्ग ख़ुद को फुलफिलमेंट (भरपूरता) का अहसास देते हुए , हम सब के जीवन में रस (मिठास) का योगदान देता है | संगीत होता तो जिन्दगी मशीनी हो जाती | इसलिए जब जितना जरुरी हो , मन के समन्दर से भावः का मोती उठा लाईये , गोते लगाइए और व्यवहार में तराश लीजिये | आपकी अपनी नकेल अपने हाथ में ही रहनी चाहिए |