शुक्रवार, 12 मार्च 2010

हवाओं से सुगन्ध आए


एक बार सर्दियों में जब हम तराई के अपने घर में रहने गए ,देखा कि हमारे किरायेदार बहुत सारी किताबें छोड़ कर लापता हो गए थे | अब रद्दी ठिकाने लगाते वक्त कुछ अपनी रूचि की किताबें मैंने अपने पास रख लीं , कुछ कबाड़ी को दीं और वो सारी किताबें जो यंत्र तंत्र या ऐसी ही कुछ विद्याओं की थीं , वो सब मैंने जला दीं | क्योंकि मेरे हिसाब से आधे-अधूरे ज्ञान से खतरा ज्यादा होता है ....दूसरे कोई भी ज्ञान या ताकत इंसानियत से बढ़ कर नहीं है| मैंने उन्हें खुद पढ़ा , ही कबाड़ी के हाथ लगने दिया | हमारे किरायेदारों का हाल हमारे सामने था , अर्श से फर्श पर पहुँच गए थे , फेक्टरी नुकसान में गई , हमारा किराया एक साल से दे पाए थे , आखिर सरकार लेनदारों से छुपकर पता नहीं किस कोने में गए | गलत दिशा पकड़ने में कितनी देर लगती है ! फिर एक बार इस मकड़जाल में उलझ कर किनारा शायद कभी मिलता हो , मन की शान्ति कभी मिल ही नहीं सकती |


आदमी जब अपराध करता है तो कहते हैं कि उसकी नींव कहीं कमजोर है यानि उस अपराध की प्रवृति का बीज बचपन में कहीं पड़ गया था जो गलत दिशा में पनप गया | और जब बच्चा गुनाह करता है , यानि बीज इंस्टेंट फल फूल गया ,....दोनों तरह से दोषी तो कहीं कहीं बड़ा आदमी ही है , उसने ऐसे दृश्य उस बच्चे को क्यों दिखाए कि वो ऐसी मनस्तिथि से गुजरा जिसने उसे गुनाह के लिए उकसाया |


आदमी जिस सुख को पाने के लिए नए नए तरीके ईजाद करता है , वही चाह एक दिन उसे ले डूबती है |सुख तो मन से भरपूर रहने में है , बाहर तो कभी मिल ही नहीं सकता | मृगमारिचिका की तरह आँखों पर पर्दा पड़ जाएगा , सुख की चाह दूरगामी प्रभाव को भी नजर-अंदाज़ कर देगी | लेखक बिरादरी से मेरा अनुरोध है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ऐसा कुछ भी रचें जिस से अपने देश के बच्चों पर कोई भी गलत असर पड़े |


न रचना कुछ भी ऐसा
कि हवाओं से दुर्गन्ध आए
पढने सुनने वालों में ,
वो तेरा नन्हा बच्चा भी हो सकता है
न दिखाना उसे वो दिन
कि मुँह छिपा कर शर्म आए
घर की मर्यादा न करना नीलाम
इसी राह से सुकून आए
जाने लगते हैं जब दुनिया से
खुद से नजरें चुरा कर , न कोई जाए
बस वही रचना कि जाने के बाद भी
हवाओं से सुगन्ध आए