रविवार, 21 फ़रवरी 2010

सहज रह पाने का दायरा


श्री श्री रविशंकर जी ने कहा कि When comfort zone is increased , you feel comfortable in pain also. Emotion sways away as a line does not stay much longer on water , it fades away soon .इससे जो मैंने समझा , सबके साथ बाँटना चाहूँगी । जब हम अपने सहज रह पाने का दायरा बढ़ा लेते हैं यानि हालातों को साक्षी भाव से घटते हुए देखने की समझ विकसित कर लेते हैं , तब हम पर दर्द का असर बहुत थोड़ी देर के लिए होता है , हम जल्दी ही सहज हो जाते हैं । दर्द तो उतना ही है जितनी उसकी अनुभूति होती है । स्थाई अगर सुख नहीं था तो दुःख भी स्थाई नहीं होगा , एक परिस्थिति की तरह ये भी गुजर जाएगा , हम उसमे अटके तो कई गुना नुक्सान सहना पड़ेगा । सबसे बड़ा नुक्सान तो हमें मानसिक स्तर पर झेलना पड़ेगा , इसलिए अच्छा यही रहता है कि हम विवेक-पूर्ण निर्णय लेते हुए आगे बढ़ें । सचमुच यही तरीका है सहन-शक्ति बढ़ाने का , परिस्थिति में डाँवाँडोल नहीं होना है , अपनी ऊर्जा को हल ढूँढने में लगाएं । कोई व्यवस्था अच्छी चला सकता है , कोई सृजन कर सकता है , तो कोई क्रान्ति ही ला सकता है । अपनी ऊर्जा को सकारात्मक दिशा दें ।
अब हम देखें कि हमारी तकलीफ में सहज रहने की क्षमता कितनी बढ़ी ? क्या वाकई गुस्सा ,द्वेष , चिन्ता अब हमारे मन पर उतनी ही देर असर करते हैं जितनी देर पानी पर एक लकीर को बनने और बिगड़ने में लगती है ? अब अगर हम हर नकारात्मक परिस्थिति को सकारात्मक में बदल लेते हैं तो हाँ ......किधर थी हमारी मँजिल और किधर जा रहे थे हम !

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

धमक दूर तलक जायेगी


ाहिद साहब ,


आपने तारीफ की , अच्छा लगा , सबका लेखन मौलिक है , जैसा आप लिखते हैं वैसा मैं नहीं लिख सकती , इसलिए तुलना मत करिए , मैं जानती हूँ खुद को कमतर कह लेना आसान नहीं है | जो काम पीठ पर थपकियाँ करतीं हैं , सराहना करती है , वो काम आलोचना नहीं कर सकती ; हालाँकि स्वस्थ्य आलोचना चमकाने का काम करती है अगर हम स्वस्थ्य मानसिकता रखते हैं तो | खलिश माने चुभन ही होता है ? ' वो खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ' , अगर खलिश हमें सृजन , सकारात्मकता या बेहतरी की ओर ले जाए तो वो चुभन बनाये रखनी चाहिए , सार्थक है | हम सब जानते हैं कि हमारे बचपन की मामूली से मामूली घटना भी जिसने हमें भाव-विह्वल किया , हमारे ज़हन में आज भी जिन्दा है , उसका हम पर कितना असर है ! इसी तरह हमारी वाणी , हमारे शब्द , यहाँ तक कि हमारे दिल में पैदा होने वाले भाव , सबका असर होता है | वो टूटन , वो बिखरन, वो धमक दूर तलक जायेगी | इसलिए क्यों पहले अपने मन के भाव को ही सँभाल लें ; जो कुछ ऐसा रचे , कहे जो अपने लिए या समाज के लिए अहितकर हो |
आपने ग़ज़ल लिखी , मैंने इक नज्म लिखी , आपने टिप्पणी दी , मैंने बदले में इक लेख लिखा | देखिये , शब्दों की गूँज कितनी होती है | चुप भी जब गूँजा करती है तो शब्दों से परे होती है | आपका हमारा काम तो उसे बेनकाब करना है |
गम किया , गुमान किया
यही तरीका है जीने का , जिसने आराम दिया
आपकी टिप्पणी ने दो मुठ्ठी खून तो मेरी रगों में भी उँडेला ही !
आपकी टिप्पणी के उत्तरमें मैंने एक लेख ही लिख डाला है |



शारदा अरोरा