बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

विष्वास करना कला है , साथ ही विज्ञानं भी...

बड़ी कोशिशों से पासपोर्ट रिन्यू करवाने के लिए अपोइन्टमेंट मिला था। सारी औपचारिकताएँ पूरी हुईं तो एक एफ़िडेबिट बनवाने की क्वैरी निकल ही आई।  टीना काउन्टर से एफ़िडेबिट कहाँ से और कैसे बनेगा पूछ कर जैसे ही मुड़ी , ऑफिसर पास ही खड़ी दूसरी लड़की के लिए कह रहा था कि इन मैडम को भी एफ़िडेबिट बनवाना है। जिसे सुनकर वो लड़की मायूस हो गयी थी ,कि अब फिर लटक गया , दुबारा से अपोइन्टमेंट लेना पड़ेगा।  टीना ने उसका उतरा चेहरा देख कर बात करने की पहल की। कहा " टेन्शन मत लो ,मुझे भी बनवाना है , मैं यहाँ नई हूँ , चलो दोनों साथ चलते हैं ,एक ऑटो करते हैं , इससे पहले कि ऑफिस बन्द होने का वक्त हो जाए ? जल्दी करते हैं। " खैर दोनों जल्दी-जल्दी काम करवा कर लाये। अब इस ऑफिस में आखिरी काउन्टर पर दो हजार रूपये देने थे।  रूबी ने पैसे गिनने शुरू किये , अरे ये क्या १९०० रूपये यानि १०० रूपये कम.... अब क्या करे ,यहाँ तो कोई उसे जानता भी न था।  और आसपास कहीं A.T.M.भी नहीं था। एक बार फिर उसका मुहँ उतर गया।  टीना ने दूर से उसे पशो-पेश में देखा , पास जा कर पूछा कि क्या बात है।  टीना को १०० रूपये का नोट निकाल कर रूबी को देने में देर नहीं लगी।  रूबी का काम हो गया और वो रसीद ले कर बाहर चली गई।  टीना अभी क्लीयरेंस का इन्तज़ार कर रही थी , सोच रही थी कि सौ रूपये तो यूँ ही खर्च हो जाते हैं , कितना तो हम अपने खाने-पीने पर मौज-मस्ती पर खर्च करते हैं ,कपड़ों पर न जाने कितना प्रॉफिट दुकानदार हमसे ऐंठते हैं।  रूबी को सिर्फ सौ रूपये की वजह से वो सारी औपचारिकताएँ दुबारा करनी पड़तीं।  पैसे वापिस आयेँ या न आयेँ ,क्या फर्क पड़ता है।  छह बजते न बजते टीना का काम भी हो चुका था। जैसे ही वो ऑफिस से बाहर निकली , रूबी उसका इन्तज़ार कर रही थी , रूबी दोनों बाहें बढ़ा कर उसके गले लगी। उसके दिल की नमी उसकी आँखों से ज़ाहिर हो रही थी।  उसने बताया कि तीन महीने पहले ही उसकी शादी हुई है और उसका नौशा दुबई में उसका इन्तज़ार कर रहा है।  पासपोर्ट बनने के बाद ही वीज़ा की औपचारिकताएँ पूरी हो सकेंगी।  उस वक्त सौ रूपये की कमी से काम रुक जाना था।  दोनों ने एक दूसरे के फोन नम्बर एक्सचेंज किये।  टीना को रात की ट्रेन से अपने शहर वापिस जाना था। अब उसे अपना काम पूरा होने के साथ-साथ रूबी के काम पूरा करने में थोड़ी सी मदद-गार बन पाने की भी ख़ुशी थी।  

विष्वास करना एक कला है।  हम अपने आपको किस तरह समझाते हैं कि आँखें खुली रखते हुए हमें दूसरे पर विष्वास करना है।बिना ऐतबार के आप दो कदम भी नहीं चल सकते। ये दुनिया आपको काँटों की बाड़ी ही नजर आयेगी।  लोगों की आँखों में सन्देह और अविष्वास ही तैरता नजर आयेगा। काँटों पर चल कर भी आपको फूल उगाने हैं।  विष्वास ही वो शय है जो हर विपरीत परिस्थिति में भी फल-फूल सकती है , आश्चर्य जनक नतीजे ला कर असम्भव को सम्भव कर सकती है। सभी लोग अगर स्वार्थी हो जायेंगे तो सामाजिकता के सारे दावे खोखले साबित हो जायेंगे। किसी की भी आँखें अविष्वास को बड़ी आसानी से पढ़ लेती हैं।  हमें अपने मन को समझाने का आर्ट आना चाहिए ताकि हम थोड़े बहुत नुक्सान पर भी किसी बड़ी चीज को कमा सकें। 

हम इसे साइन्स इस लिए कह सकते हैं कि साइन्स तो प्रयोग का नाम है। विष्वास का प्रयोग कर के देखें ,अपना मन ठण्डा ,रिश्तों में प्रगाढ़ता और अपने आस पास खुशिओं का वातावरण इसी का नतीजा है। सहजता , सरलता ,सरसता इसी का नाम है।  हाँ , सजगता अपने आप आ जाएगी। दुनिया चाहे इसे भावनात्मक बेवकूफी कहे मगर मेरी नजर में इसे भावनात्मक समझदारी या अक्लमन्दी कहा जाना चाहिये। 

बेशक आदमी ही आदमी की काट करता है और उसका दिमाग इस राह पर इतनी तेज चलता है कि वो हर मुमकिन तरीके से दूसरे को छलता नजर आता है मगर ....
वो बन सकता था खुदा 
अपनी कीमत उसने खुद ही कमतर आँक ली होगी ....