रविवार, 4 अक्तूबर 2020

समाज की उधड़ती परतें : नशा

 समाज की पर्तें उधड़ रही हैं , नेपोटिज्म ,पॉलिटिकल कनेक्शन ,ड्रग कनेक्शन और रिश्तों की टूटन । रिश्तों की टूटन अन्ततः डिप्रेशन की तरफ ले जाती है। ये साफ़ होता जा रहा है कि आज की आर्टिफिशयल चमक-दमक भरी दुनिया किस तरह नशे की गिरफ़्त में आ चुकी है। 


ड्रग्स पार्टीज करना महज़ मनोरँजन के लिए या शौक नहीं है ;यहाँ तलाशे जाते हैं मौके यानि ऊपर चढ़ने की सीढ़ियाँ । वही लोग जो यहाँ किसी उद्देश्य से आते हैं वो खुद कभी किसी के लिए सीढ़ी नहीं बनते ; बल्कि दूसरों के पाँव के नीचे की जमीन तक खींचने के लिए तैय्यार रहते हैं । पहले-पहल कोई मॉडर्न होने के नाम पर ड्रग्स चखता-चखाता है ;फिर धीरे-धीरे ये लत बन जाता है ,जैसे धीमे-धीमे कोई जहर उतारता रहता है अपनी रगों में ।

एक दिन ये भी आता है कि नशा जरुरत बन जाता है शरीर की भी और मन की भी। आदमी भूल जाता है कि जिस दीन-दुनिया की खातिर नशे को गले से लगाया था ,वही दुनिया उसे अब छोड़ने लगती है। हर अप्राकृतिक चीज के साइड इफेक्ट्स होते हैं। नशा शरीर को खोखला कर देता है। ज्यादा दवाइयाँ और हारमोन्ज़ माइकल जैक्सन की हड्डियों तक को खोखला कर गए थे ;सभी जानते हैं कि कितनी कम उम्र में वो दुनिया को अलविदा कह गए। कामयाबी ,शोहरत ,पैसा किसी भी काम न आया। जिस सेहत को आप हजारों रूपये दे कर भी खरीद नहीं सकते ; उसे दाँव पर लगा देना , इससे बड़ी नादानी क्या होगी। 

कैसी विडम्बना है कि नशा जिस मानसिक स्थिति को उठाने के लिए किया जाता है , उसी को घुन की तरह खाने लगता है। ये जितना चुम्बक की तरह लुभाता है ,उतना ही आप ज़िन्दगी से दूर होते जाते हो।  धीरे-धीरे नकारा होते जाते हो। जब आँख खुलती है तो ज़िन्दगी का कोई मक्सद ही नजर नहीं आता। खोखली ज़िन्दगी और खोखला मन डिप्रेशन और बीमारियों की तरफ धकेल देता है। 

 तक़रीबन पन्द्रह साल पहले अखबार में छपा था किशोरावस्था के स्कूल जाने वाले बच्चे इंक इरेजर या वाइटनर का इस्तेमाल कर रहे हैं नशे के लिए। फिर इनकी सेल बैन कर दी गई थी। चिंता का विषय है कि इतने छोटे बच्चों को ये लत किसने लगाई ,किसने उन्हें ये रास्ता दिखाया। ड्रग्स बहुत गहरे अपनी पैठ बनाये हुए हैं। जब दाल बीनने बैठेंगे तो सारी दाल ही कहीं काली न मिले।  

ड्रग्स की खोज दवा की तरह की गई थी और लोगों ने इसे कारोबार बना डाला ;अमीरी का सबसे आसान रास्ता। मौज-मस्ती की आड़ में हमें पता ही नहीं चलता कि हम अपने नैतिक मूल्यों से कितनी दूर आ गये हैं। आडम्बर करते-करते अपनी ही दुनिया में आग लगा बैठे है। नींव खोखली हो तो किसी भी समाज का भविष्य दाँव पर लगा होता है।  अब जब समाज की पर्तें उधड़ने लगीं हैं। पर्त -दर-पर्त कितने ही लोग नपेंगे। 

आप खोजिये इस नकली चौंधियाती दुनिया में असली रिश्तों को ,किसी छाँव को , किसी आराम को। अब आप बहुत दूर निकल आये हैं। आपके हाथ से बहुत कुछ छूट गया है। दो बूँद ज़िन्दगी की चाहिए थी और आप नशे को , भटकाव को गले से लगा बैठे। 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (07-10-2020) को   "जीवन है बस पाना-खोना "    (चर्चा अंक - 3847)    पर भी होगी। 
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
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  2. बहुत सोचनीय व चिंतनीय स्थिति है ! चेतने का समय है, कहीं बहुत देर ना हो जाए

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