क्या जब हम असहाय होते हैं , तब विषम परिस्थितियों से भी समझौता कर लेते हैं ? सही राह पर होने पर भी जीवन का ये मूल्य चुकाना भारी पड़ता है । सरकारी गैरसरकारी संगठन , सभी जगह ये कैसी संरचना है । जो सत्ता में है , जो प्रभुत्व दिखाता है , लोग एक टाँग पर खड़े हो कर भी उसके आगे पीछे घूमते हैं ; इसके विपरीत जो नर्म है , थोड़ा कम प्रभाव-शाली है , उसे दूसरे स्थान पर होने का अहसास दिलाने का ..यहाँ तक कि नजर अंदाज़ करने का भी कोई मौका नहीं छोड़ा जाता । ये कैसा चलन है कि आदमी को काम से नहीं आँका जाता , उसके ओहदे को आँका जाता है , और मजबूरी का भरसक फायदा उठाया जाता है । पढ़े लिखे समझदार लोग ही नहीं , माली चपरासी आदि शारीरिक काम करने वाले भी इसी मानसिकता का शिकार हैं ।
सबको माफ़ न करें तो जीवन में आगे कैसे बढ़ें । सबको सिखाया नहीं जा सकता , दूसरे को सबक़ सिखाने से पहले खुद को भी यातना झेलनी पड़ती है , मानसिक शांति खो जाती है । जब बहुत उम्मीद हो और किसी तरह भी वश न चले ...ये कैसी मोहताजी होती है । प्रकृति हमें धूल में मिलाने पर आमादा कभी नहीं हो सकती , ये तो परीक्षाएं हैं , खुद से ये कहने के लिये जिगर रखना पड़ता है । जब तक सब सहज हो , बड़ा आसान है जीना , जहाँ विषमता हुई वहीँ खून खौलता नजर आता है ।
जीवन के डूबते पलों में हम खुद से वायदा करते हैं कि बस परम पिता उँगली पकड़ लें , किसी तरह चला लें हम चलते रहेंगे । जिन्दगी मिलते ही हम अपने सारे अधिकार वापिस पा लेना चाहते हैं । मन आसानी से समझौता नहीं करता । ये सवाल कई बार उठता है , ठुक पिट कर भी हम मरे तो नहीं हैं ना । कई बार ध्यान आता है , बिन पंखों के उड़ान क्या होगी । हमारी ऐसी संरचना हमें कदम कदम पर पंगु बनाने के लिये तुली होती है ।
सोचा था इस विषय पर नहीं लिखूंगी । कहीं न कहीं कोई अशक्तता या रिक्तता का अहसास अभी ज़िंदा है , जिसने आज फिर सिर उठा लिया ।
सदियों से इंसान
धोता आया है ग़मों को
आंसुओं की नदी में
सदियों से सुनता आया मन
सैलाब की ये आहटें
उखड़े उखड़े से तो रहते हैं
किनारे काट-काट चलते हैं
गांठें रोक लेती हैं
वजूद को बहने से टोक देती हैं
न होते गम तो क्या करते
चलो ऐसे भी जिन्दगी गुजरान होती है
नहीं हुआ जो अपने मन का
चलो अच्छा है कि
बर्दाश्त करने की ताकत बढ़ी
सच के हक़ में बोलना तो बहुत आता है , मगर यूँ टकरा टकरा के मिट जाना अपनी नियति नहीं ....
सबको माफ़ न करें तो जीवन में आगे कैसे बढ़ें । सबको सिखाया नहीं जा सकता , दूसरे को सबक़ सिखाने से पहले खुद को भी यातना झेलनी पड़ती है , मानसिक शांति खो जाती है । जब बहुत उम्मीद हो और किसी तरह भी वश न चले ...ये कैसी मोहताजी होती है । प्रकृति हमें धूल में मिलाने पर आमादा कभी नहीं हो सकती , ये तो परीक्षाएं हैं , खुद से ये कहने के लिये जिगर रखना पड़ता है । जब तक सब सहज हो , बड़ा आसान है जीना , जहाँ विषमता हुई वहीँ खून खौलता नजर आता है ।
जीवन के डूबते पलों में हम खुद से वायदा करते हैं कि बस परम पिता उँगली पकड़ लें , किसी तरह चला लें हम चलते रहेंगे । जिन्दगी मिलते ही हम अपने सारे अधिकार वापिस पा लेना चाहते हैं । मन आसानी से समझौता नहीं करता । ये सवाल कई बार उठता है , ठुक पिट कर भी हम मरे तो नहीं हैं ना । कई बार ध्यान आता है , बिन पंखों के उड़ान क्या होगी । हमारी ऐसी संरचना हमें कदम कदम पर पंगु बनाने के लिये तुली होती है ।
सोचा था इस विषय पर नहीं लिखूंगी । कहीं न कहीं कोई अशक्तता या रिक्तता का अहसास अभी ज़िंदा है , जिसने आज फिर सिर उठा लिया ।
सदियों से इंसान
धोता आया है ग़मों को
आंसुओं की नदी में
सदियों से सुनता आया मन
सैलाब की ये आहटें
उखड़े उखड़े से तो रहते हैं
किनारे काट-काट चलते हैं
गांठें रोक लेती हैं
वजूद को बहने से टोक देती हैं
न होते गम तो क्या करते
चलो ऐसे भी जिन्दगी गुजरान होती है
नहीं हुआ जो अपने मन का
चलो अच्छा है कि
बर्दाश्त करने की ताकत बढ़ी
सच के हक़ में बोलना तो बहुत आता है , मगर यूँ टकरा टकरा के मिट जाना अपनी नियति नहीं ....
उसकी सशक्तता को समर्पित एक कविता यहां देखें http://rajey.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंनहीं हुआ जो अपने मन का
जवाब देंहटाएंचलो अच्छा है कि
बर्दाश्त करने की ताकत बढ़ी
सच्चाई को वयां करती हुई रचना ,बधाई
चलो ऐसे भी जिन्दगी गुजरान होती है
जवाब देंहटाएंनहीं हुआ जो अपने मन का
चलो अच्छा है कि
बर्दाश्त करने की ताकत बढ़ी
Sach bada sashakt nazariya hai aapka!
Bahut hi Achha
जवाब देंहटाएंलेखनी बहुत अच्छा लगा,,धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसटीक बात कही है आपने .बहुत अच्छा मुद्दा उठाया है .बधाई .
जवाब देंहटाएं