बुधवार, 9 जुलाई 2014

ये बन्दूकें क्यूँ बोते हैं '

किसी शायर ने सटीक कहा है।  

' हम अपने-अपने खेतों में ,
गेहूँ की जगह , चावल की जगह ,
ये बन्दूकें क्यूँ बोते हैं '

नफ़रत की चिन्गारी को हवा देते ही शोले भड़क उठते हैं।  चन्द लोगों के सीने की नफ़रत व्यवसाय का रूप क्यों ले लेती है ? कम उम्र का युवा मन जिसे कच्ची मिट्टी की तरह जिधर चाहे मोड़ लो , चोट खाये हुए दिल को और उकसा कर विध्वंसक गतिविधियों में उलझा दिया जाता है।  उसे पता ही  नहीं चलता कि उसका इस्तेमाल किया जा रहा है।  उसका रिमोट तो आकाओं के पास है , जिन्होंने उस चिन्गारी को बारूद में ढाला है।
इन्सान का दिल हमेशा पुरानी चीजों को याद करता है।  बचपन , माँ , सँगी-साथी क्या कभी भूले से भूलते हैं।  अतीत क्या कभी यादों से मिटाया जा सका है।  उनसे आँख चुराने का मतलब ही यादें कड़वी हैं।  जिस दिन 'कसाब' को उसके गाँव के लोगों ने पहचानने से इन्कार कर दिया था , उसके माँ-बाप भी वो गाँव छोड़ कर कहीं चले गये थे।कलम ने लिखा था.…… 

वो गलियाँ , वो दीवारें
बेज़ुबान बोलें कैसे
पहचानतीं हैं तेरी आहटें
मगर भेद खोलें कैसे

नक़्शे में है तेरा वतन
जैसे है वो तेरी यादों में
लाख कर ले तू जतन
वक़्त के मोहरे को वो अपना बोलें कैसे

तेरे वतन के लोग
जिनके लिये तूने दाँव खेले
साथ देती नहीं परछाईं भी
मुसीबत में ,वो ये बात खोलें कैसे

आतँक-वाद की दुनिया ही अलग होती है।  जिस काम को दुनिया से छिपा कर किया जाये , निसन्देह वो गलत होता है।  अपने ही वतन से जैसे जला वतन कर दिये गये हों।  दुखद बात ये है कि फिर लौटा नहीं जा सकता।न जमीं बचती है पैरों तले , न आसमाँ ही शेष रहता है। जमीं मतलब ज़मीर , इन्सान का खून देख कर भी जो न पसीजे, उसे क्या कहेंगे। उसने ज़मीर के मायने ही गलत उठा लिये हैं।  आसमाँ मायने स्वछन्दता , निडरता ... जहाँ तू आराम से उड़ सके।  निश्छलता के बिना ये आसमान तेरा नहीं।  खौफ के साथ निडर कभी रहा ही नहीं जा सकता।  

हम दुनिया में ये सब तो नहीं करने आये थे।
हर ज़र्रा चमकता है नूरे-इलाही से 
हर साँस ये कहती है के हम हैं तो खुदा भी है 

बस कोई नूर वाली आँख ही उसे देख सकेगी , महसूस कर सकेगी। जो किसान हमें गेहूँ चावल देता है , आम आदमी जो कपड़ा छत मुहैय्या कराता है , जिसके दम पर हमारा जीवन और वैभव आश्रित है , हम उस पर ही अन्याय कर बैठते हैं।  जैसे अपनी ही जड़ें खोद रहे हों।  बन्दूकें बोयेंगे तो बन्दूकों की फसल ही काटेंगे।  जिस तकलीफ ने उकसाया हो , रुक कर जरा सोचें कि इस तड़प को…इस उनींदी को सार्थक कर लें।  कोई सुबह होने को है।  मन को भी वो दिशा दें कि फिर ये हादसे न घट पाएं।  अपने जैसों को भी उबार लाएं।  

8 टिप्‍पणियां:

  1. हम अपने -अपने खेतों में '
    गेहूँ की जगह , चावल की जगह ,
    ये बन्दूकें क्यूँ बोते हैं '

    बहुत सुन्दर विचारणीय व चिंतनशील प्रस्तुति

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  2. कल 11/जुलाई /2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  3. बहुत सारगर्भित और विचारणीय आलेख...

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  4. सुन्दर और चिंतनशील प्रस्तुति...............

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