एक जोड़ी आँखें दूसरी मँजिल की खिड़की से देख रही हैं । सामने एक घर का आँगन है , दरवाजा गली में खुलता है , सुबह का वक्त है , एक मेहमान परिवार बड़ी सी अटैची लिये हुए घर में दाखिल होता है । बच्चों के सिर थपथपा कर घर के बड़े लोग मेहमानों का स्वागत करते हैं ।
दो ही घंटे बाद दो निरीह जानवर प्लास्टिक की रस्सियों के साथ घर की बैठक की खिड़की से आँगन में बंधे नजर आते हैं । एक तसले में हरी हरी घास डाल दी गई है , जिसमें वो मुहँ चला रहे हैं । अगली सुबह जानवरों की अजीब अजीब सी आवाजें कानों में पडतीं हैं , नींद खुल जाती है । आँखें खिड़की पर नमूदार होतीं हैं , दोनों जानवर अपनी जगह पर नहीं हैं । आँगन पूरा धुला हुआ गीला गीला सा है , दूसरे घर की छत से एक बिल्ली ऐसे बैठी देख रही है जैसे साँप सूँघ कर गया हो । एक पन्द्रह सोलह साल का लड़का कभी प्लास्टिक की रस्सी गली में ले जाता है ; कभी पानी का पाइप ले जाता हुआ नजर आता है । ऊपर आसमान में कौए इक्का-दुक्का मँडराते हैं ; कभी बिजली के खंभों पर नजर आते हैं । आँगन में धूप पसर आई है ।
थोड़ी देर बाद ही एक जानवर फिर आँगन में खिड़की से बँधा नजर आता है ; बार बार घर के प्रवेश द्वार पर लगे पर्दे से मुहँ मार मार बाहर निकल जाना चाहता है । बिल्ली अब तीसरे घर की छत पर जाकर बैठ गई है , सोई नहीं है , सिर पूरा तना हुआ है , लगता है आज बिल्ली छत से नीचे नहीं उतरेगी । इतने में क्या देखा कि वही निरीह जानवर कमरों की आड़ में एक अमरुद के पेड़ के साथ बंधा खडा है । रस्सी से उसके दोनों अगले पैर बाँध दिए गए हैं ,और फिर पिछले दोनों पैर , अब वो जमीन पर गिरा है , अब मुँह को बाँधा जा रहा है ...अब आगे और देखना इन एक जोड़ी आँखों को गवारा न हुआ । खिड़की का पर्दा खिसका कर धम्म से सोफे पर बैठ गईं । इन आँखों में उन हाथ वालों के दिल परिवर्तित करने का दम नहीं है ।
कोई आवाज नहीं ...आत्मा से परमात्मा का मिलन ...कोई ऐसे भी क्या दुनिया से जाता है , न किसी की आँख में आँसू , न कोई दिल है नम !... इन एक जोड़ी आँखों से कुछ आँसू ढुलक आते हैं । कन्चों सी चमकती वो आँखें , रातों को पूछती हैं ...कुसूर क्या था मेरा ...बड़ी मछली छोटी को खा जाती है , समँदर का दिल बड़ा नहीं हो सकता क्या ?
मन भी एक बिल्ली सा
दूर की छत से निहारता है
चूहे को सामने लाओ
कैसे झपट्टा मारता है
मन भी तो एक तसला
हरी हरी सी घास के
बहकावे में आ के भूला
रीता रीता सा है सब कुछ
किस चुग्गे में मुँह मारता है
मन भी तो एक कौआ
बोटियों पे क्यूँ मँडराता है
वश चलता नहीं है कुछ भी
खम्भों तारों को ही झकझोरता है
मन भी तो निरीह जानवर
मुँह हाथ पैर हैं बंधे
डोरी है किसके हाथ में
खूँटा तुड़ा के भागता है
मन भी तो है धूप सा
अपने हिस्से की छाया ढूँढता है
चुभा-चुभा सा है कुछ
राहत का सामाँ ढूँढता है
मन भी तो है धूप सा
जवाब देंहटाएंअपने हिस्से की छाया ढूँढता है
चुभा-चुभा सा है कुछ
राहत का सामाँ ढूँढता है
Aah!Dilme ek kasak,ek tees ubhar aayee.
मन के विविध रूपों को बारीकी से चित्रित किया है आप ने
जवाब देंहटाएंमन भी तो है धूप सा
जवाब देंहटाएंअपने हिस्से की छाया ढूँढता है
चुभा-चुभा सा है कुछ
राहत का सामाँ ढूँढता है .....
bahut dino ke bad aapka blog padh payi ... marmik lekh , sundar kavita padhne ko mili...
गध और कविता के बीच बेहतरीन तालमेल देखने को मिला .कुछ उदास सा किया रचना ने पर मानसिक संतुसटी के साथ
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