बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

धमक दूर तलक जायेगी


ाहिद साहब ,


आपने तारीफ की , अच्छा लगा , सबका लेखन मौलिक है , जैसा आप लिखते हैं वैसा मैं नहीं लिख सकती , इसलिए तुलना मत करिए , मैं जानती हूँ खुद को कमतर कह लेना आसान नहीं है | जो काम पीठ पर थपकियाँ करतीं हैं , सराहना करती है , वो काम आलोचना नहीं कर सकती ; हालाँकि स्वस्थ्य आलोचना चमकाने का काम करती है अगर हम स्वस्थ्य मानसिकता रखते हैं तो | खलिश माने चुभन ही होता है ? ' वो खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ' , अगर खलिश हमें सृजन , सकारात्मकता या बेहतरी की ओर ले जाए तो वो चुभन बनाये रखनी चाहिए , सार्थक है | हम सब जानते हैं कि हमारे बचपन की मामूली से मामूली घटना भी जिसने हमें भाव-विह्वल किया , हमारे ज़हन में आज भी जिन्दा है , उसका हम पर कितना असर है ! इसी तरह हमारी वाणी , हमारे शब्द , यहाँ तक कि हमारे दिल में पैदा होने वाले भाव , सबका असर होता है | वो टूटन , वो बिखरन, वो धमक दूर तलक जायेगी | इसलिए क्यों पहले अपने मन के भाव को ही सँभाल लें ; जो कुछ ऐसा रचे , कहे जो अपने लिए या समाज के लिए अहितकर हो |
आपने ग़ज़ल लिखी , मैंने इक नज्म लिखी , आपने टिप्पणी दी , मैंने बदले में इक लेख लिखा | देखिये , शब्दों की गूँज कितनी होती है | चुप भी जब गूँजा करती है तो शब्दों से परे होती है | आपका हमारा काम तो उसे बेनकाब करना है |
गम किया , गुमान किया
यही तरीका है जीने का , जिसने आराम दिया
आपकी टिप्पणी ने दो मुठ्ठी खून तो मेरी रगों में भी उँडेला ही !
आपकी टिप्पणी के उत्तरमें मैंने एक लेख ही लिख डाला है |



शारदा अरोरा

शनिवार, 16 जनवरी 2010

पहुँचता कोई कहीं नहीं


अमर उजाला के एक ' रूपायन ' अँक में एक लेख छपा था ' दुनिया एक बाजार , ऐसे चुने राजकुमार ' , जिसमें इस मुश्किल को हल करने में शापिंग के फार्मूले को इस्तेमाल करने का सुझाव दिया गया था | सचमुच बाजार इतना छा गया है कि आदमी एक ' उत्पाद ' ही बन कर रह गया है | यह बात तो ठीक है कि वर चुनते समय आपको अपनी प्राथमिकताएँ पहले तय करनी पड़ती हैं ; उनमें किस बात पर कितना फेर-बदल किया जा सकता है , ये भी खुद पर ही निर्भर करता है | आजकल कितनी ही वेब साइट्स व अखबार इस मदद के लिए उपलब्ध हैं या कहिये कि पैसा कमाने का जरिया भी बन गयी हैं | हर बात का बाजारीकरण होता जा रहा है |
जीवन साथी चुनने जैसे नाजुक ख्याल को शापिंग से जोड़ कर देखना ! , सचमुच क्या पुरुष वर्ग नाराज नहीं हुआ ? क्या इतना आसान है , कइयों से मिलना , मशीनी ढँग से खुद को भी एक वस्तु समझ लेना ? जाने अन्जाने कितने ही दिल टूटते होंगे , क्योंकि शादी तो एक से ही होगी | विज्ञापन और पँच लाइंस बेशक मदद कर रही हैं , पर आप पायेंगे कि बार-बार वही वही विज्ञापन आ रहे हैं , क्योंकि जहाँ रिश्तों के बहुत सारे ऑप्शन आ जाते हैं , वहीं आदमी एक जगह भी सैटल नहीं कर पाता | सबसे बड़ा कारण होता है भावनात्मक जुड़ाव ( इमोशनल बोन्डिंग ) का अभाव | न तो कोई मध्यस्तता कर रहा होता है जो आपको दूसरे पक्ष की विशेषताएँ बता सके और न ही आप किसी बात में पहल करना चाहते हैं | शुरुआती दौर चलता है फिर सब टायं-टायं फिस्स | बात उम्र भर की है , विशवास जीतना कठिन | सभी की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा हैं , कोई भी अपेक्षा से कम पर समझौता नहीं करना चाहता | और हम पाते हैं कि जहाँ से चले थे , खड़े वहीं पर हैं |
हर नजर है तूफ़ान समेटे हुए
हर दिल है आसमान लपेटे हुए
चलते हैं सब मगर
पहुँचता कोई कहीं नहीं
विष्वास है खोया हुआ
रिश्तों में अब नमी नहीं बोल्ड
नजर तो उठती हर तरफ़
भीड़ में चेहरों की कमी नहीं
हाथ तो बढ़ाते हैं
विष्वास साथ लाते नहीं
हर नजर है तूफ़ान समेटे हुए
हर दिल है आसमान लपेटे हुए
अगली बार जब कोई भा जाए तो अगर मगर किये बिना वक़्त को थाम लेना , जो हो सके तो कम से कम दिल तोड़ना , उम्र को यूँ ही गलाना अच्छा नहीं |

बुधवार, 13 जनवरी 2010

शान्त मन ही जिन्दगी की जँग जीत सकता है

किसी शायर ने कहा है
आदमी आदमी को क्या देगा
जो भी देगा मेरा खुदा देगा
इस सोच के साथ कडुवाहट को पी सकते हैं कि उम्मीद सिर्फ खुदा से रख सकते हैं , आदमी से नहीं | जबकि खुदा भी आदमी के जरिये ही हमारी मदद करता है | अगर ये कहें कि
' वो बन सकता था खुदा , अपनी कीमत उसने खुद ही , कमतर आँक ली होगी' 
तो कैसा रहे ? मन में मची हुई उथल-पुथल , धडकनें हर वक़्त ऊपर-नीचे होती हुईं , कहीं लगता है पीछे रह गए , कहीं लगता है शिकार ( विक्टिम ) बन गए .......अशांत मन के लक्षण हैं ये | दिल के साथ भावनायें तो होंगी ही | भावनाओं को अगर सही दिशा दे दी जाये तो वो एक जगह इकट्ठी होकर तो हमें तंग करेंगी ही हमारे आगे बढ़ने के रास्ते में बाधा बनेंगी | जैसे प्रेम को सीमित दायरे में रखने की बजाय सर्व से जोड़ दिया जाए तो विस्तृत दायरे की भलाई की बात सोचते हुए आप अपनी तकलीफें तो भूल ही जायेंगे | अपना उद्देश्य तो जिन्दगी को सुचारू रूप से चलाना है , ताकि जिन्दगी एक उत्सव की तरह बीते | जिन्दगी का उद्देश्य ऐसा होना चाहिए कि हम आराम की नींद सो सकें | झूठ-फरेब के सहारे चलती जिन्दगी , सुकून नहीं देगी , यहाँ तक कि नींद भी हराम कर देगी | सच हमेशा हरा-भरा रहता है , कहीं कोई दुराव-छिपाव नहीं , जब आडम्बर नहीं तो अशांति भी कैसी ! बहुत सारी बातें तंग करती हैं असली नकली चेहरे , काम के वक़्त बाप बना लेने वैसे कुछ भी न समझने वाली मानसिकता , ओहदे और क़द से तोलती चाटुकारिता ,धनाड्य अहंकारिता , गुम हो गई दमीय
आह , कितने कंकड़ फेंकें कि लहरों में तूफ़ान उठेगा
चैन तो दूर की बात है , आँखों में दिन-रात कटेगा | 
ऐसे हालात में मन शांत कैसे हो , जो बात-बात पर भड़के भी , वो कला तलाशनी है | वो कला तो प्रेम ही है , जब सर्व से प्रेम करते हुए , दूसरों के अवांछनीय व्यवहार के पीछे छिपे हुए कारण को समझ लेते हैं तो खुद ही करुणामय हो जाते हैं | अगर हम अपने कर्तव्य भूलें , अपनी पहुँच के अन्दर की हर संभव मदद दूसरों को दें , और दे पायें या दे पायें ऐसा जज्बा ही रखें तो एक सकारात्मक सोच दूसरे तक पहुँचती है | इतना ही काफी है मन को शाँत रखने के लिए , जिन्दगी की जँग जीतने के लिए |

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

लेखन , जैसे जीवन को एक प्रवाह


किसी शायर ने क्या खूब कहा है
दर्द जब हद से गुजर जाए , दवा होता है
मन में ये सवाल उठता था कि ऐसा कैसे हो सकता है , दर्द में तो दिल टूटता है , इन्सान ऐसी परिस्थिति तक से भागता है , फ़िर वही दर्द दवा बन कर उपचार कैसे कर सकता है ! महादेवी वर्मा ने क्या खूब कहा है -
' अभिशाप भी है वही कला , जो करती दर्द निवारण है
मेरे दुःख का साथी ही , मेरे दुःख का कारण है '

वही साथी जो दुख दूर करने वाला था वही अब दुख का कारण बन जाता है , तो क्या वही अभिशाप अब दर्द निवारण भी करेगा ? इसी कड़ी में आगे बढ़ते हैं , सुमित्रा नँदन पन्त ने कहा है -
' आह से निकला होगा गान
वियोगी होगा पहला कवि '

तो क्या सचमुच ठोकर सृजन की ओर ले जा सकती है ? वही मन जो दर्द से तड़पता है , बिखर कर रोता है , दुनिया छोड़ने की बातें करता है ; इसे सबक मानने को कतई तैयार नहीं होता | अब ऐसे तो जिंदगी कटती नहीं , दुख से भारी मन जीवन क्या चलायेगा ! ऐसी हालत में ज्यादा दिन कोई नहीं रह सकता , क्योंकि आत्मा का स्वभाव ही सहज , सरल और खुश रहना है , और तनाव रहित भी हम तभी रह सकते हैं जब मन पर कोई बोझ न हो | अब इस नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक में बदल लेने का सबसे अच्छा उपाय लेखन है | कविता , कहानी , लेख , संस्मरण कुछ भी लिखने में अनुभव आपकी मदद करेंगे | जिसने दर्द को जितना गहराई से जिया हो या महसूस किया हो , वही उस व्यथा को तीव्र सशक्त माध्यम से व्यक्त भी कर सकता है |सिर्फ़ दर्द नहीं , प्रणय निवेदन , प्रकृति की छटा या कैसे भी प्रसन्नता के पलों को जितनी संजीदगी से उसने जिया है , अभिव्यक्ति दी जा सकती है |
दर्द जब हद से गुजर जाए , दवा होता है
दिल टूटा इश्क में तो जार जार रोता है
फ़िर बताओ गम कैसे हवा होता है
दर्द नगमे गढ़ कर जब हर्फों में बयाँ होता है
वजह जीने की बन कर वो दवा होता है
इक नया साथी सा वो दुआ होता है

कोई प्रेम के आसरे से जी लेता है , कोई कर्तव्य , अधिकार , आशा के सहारे से जी लेता है | सही अर्थों में कर्म पर आश्रित होकर जिया जाता है | लेखन जैसे जीवन को एक प्रवाह दे देता है , दुख के सागर को एक दिशा मिल जाती है और जीवन नियंत्रित होने लगता है | सही कहते हैं जीवन चलने का नाम |

रविवार, 6 दिसंबर 2009

मुक्तेश्वर की पहाड़ियों से



मुक्तेश्वर की पहाड़ियों से सूर्योदय का व दूर हिमालय की पर्वत श्रृंखला का अनुपम दृश्य , २२ नव २००९ ..




चाह कर भी मन के दृश्यों के अलावा प्रकृति पर नहीं लिख पाती , बस कोशिश भर की है ...



दूधिया बर्फ की चादर ओढ़े
चाँदी जैसा रँग हुआ है
पहली किरण सूरज की छूकर
हिमशिखरों का मान बढ़ा है

अलसाई सुबह भी झटपट
आँखें खोले विस्मय में है
हुई प्रकृति है मेहरबान
उपहारों का द्वार खुला है

कहीं हरीतिमा , कहीं लालिमा

सपनों का सा रँग हुआ है
रँग सुनहरी किरणों का और
चन्द्रकिरण सा सिरमौर हुआ है

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

सूरज के हिस्से धूप है


जब कोई निश्छल मन किसी की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाये और उसके लिए ह्रदय का द्वार खुले , कोई उमँग से उसका स्वागत करे ......? शायद किन्हीं ऐसे ही पलों में अमृता प्रीतम ने ये पंक्तियाँ लिखी होंगी ........


सूरज देवता द्वार पर आ गया
किसी किरण ने उठ कर स्वागत न किया


अपनी अल्हड़ सी उम्र में इसे पढ़ कर कुछ समझ तो नहीं आया था .....हाँ कुछ रीता रीता सा महसूस हुआ था .....,...पर आज जब समझा है तो बहुत टीसता है | हर लिखने वाला अच्छी तरह जानता है कि उसकी रचना का जन्म कहाँ , किससे और किन हालात में हुआ , वो कितनी मौलिक और कितनी उधार की है | एक बार ब्लॉग पर ही पढ़ा था कि इन्सान नया कुछ नहीं लिखता , पुराने लिखे से ही विचार लेकर उसको नए सिरे से लिखता है | जो मैं लिखने जा रही हूँ वो अमृता प्रीतम की इन्हीं दो पंक्तियों और भोले मन की रोज रोज की टूटन का नतीजा है .......


अपना सा मुँह ले के लौटा है सूरज
किरणों से उठ कर स्वागत न हुआ
द्वार पर आया जब सूरज
सूरज का सत्कार न हुआ
कैसे भूले अपनी फितरत को
सूरज है सुबह , आशा ,
निश्च्छलता और निष्पक्षता का नाम
मत सिखाओ दुनिया का चलन
न ये क़ैद होगा अँजुरी में
न होगा तब्दील अन्धेरे में
थक जाता है सूरज भी मगर
कब किरणों की चुहल से आज़ाद हुआ
सूरज के हिस्से धूप है
' छाया ' न सूरज का नसीब हुआ
बदल देता किस्मत सूरज
किरणों से ऐतबार न हुआ

सोमवार, 9 नवंबर 2009

खिल जाए हर मन की कली

दिवाली गुजरे तो बहुत दिन हुए , कल उसी बेटे का बीसवाँ जन्मदिन , जो दिवाली वाले दिन बड़े संभाल कर इस दिये को दिल्ली से घर लाया और ख़ुद अपने हाथों से इसमें तेल डाल कर , बत्तियाँ लगा कर जलाया भी उसी ने |मन बेतहाशा खुश हुआ कि वो अन्तर्मन से एक खुशी के साथ साथ एक जिम्मेदारी से जुड़ा.....कहने सुनने में ये बातें भारी लगती हैं , इन्हें शब्द देना भी मुश्किल सा ही लगता है , पर है तो सच्चाई ही | फ़िर उसकी बहनों ने दिये के और उसके फोटोग्राफ्स खींचे ....|

नन्हा दिया कह रहा है

खिल जाए हर मन की कली

निखरा हूँ मैं जिस तरह

हो दिया बाती का मेल

इस तरह हर गली

मुस्कराएँ साथ मिल कर

उत्सव हो हर घड़ी

पकडें जो हाथ मिल कर

हो सदा ही दीवाली

सँदेश इतना है

मन चुक जाए

तम की हो जब जब साजिश

प्रेम का हो तेल

सहयोग हो साथी

लगन की हो अगन

दूर जहाँ तक जाती हो नजर

ज्ञान के हों दीप जगमगाते

धैर्य से झिलमिलाते

आलोकित हो जाता पथ

खिल जाए हर मन की कली