रविवार, 13 नवंबर 2022

सासों या ससुराल पक्ष के लिये

 बहू और सास-ससुर या ससुराल पक्ष के बीच ख़ट-पट अक्सर सुनते आये हैं ।पहले वक्त और था जब बहुएँ काम-काजी नहीं थीं ;आज वो पति के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर चल रही हैं । आप उन्हें चूल्हे-चक्की यानि गृहस्थी तक सीमित नहीं कर सकते ।वक़्त बहुत बदल चुका है , आज के बच्चों को एक दूसरे को समझने के लिये , साथ वक़्त बिताने के लिये प्राईवेसी भी चाहिये ।आप खाम-खाँ बीच में टाँग अड़ाये हुए हैं ।

बहू को बेटी ही समझें ।जो उम्मीदें आप बेटी के ससुराल वालों से रखते हैं , खुद भी इन पर पूरा उतरें । धीरे-धीरे नये रिश्ते भी सहज होने लगते हैं ।उम्मीद बिल्कुल न रखें , सिर्फ़ अपने कर्तव्य याद रखें । अपने आचरण से आपने क्या कमाया ? क्या ये परिवार रूपी धन आपके पास है ? यानि जब कभी आप तकलीफ़ में हों , आपके बच्चे आपके पास दौड़े चले आएँ , तब तो समझें कि आपने संस्कार कमाये ।कभी बच्चे दूर चले भी जाएँ तब भी आपके दिये हुए संस्कार उन्हें कभी न कभी वापिस आपके पास ले ही आयेंगे ।

जो बेटियाँ अपने माँ-बाप को भाभी के विरुद्ध भरे रखतीं हैं , उनसे भी मैं ये कहूँगी उन्हें अपने भाई से प्यार है ही नहीं ।अगर होता तो वो हर क़ीमत पर उसका घर बनाये रखने की हर संभव कोशिश करतीं ।अलग कल्चर से आई लड़की आपको भी अजनबी लगेगी और उसके लिये तो पूरा वातावरण ही अजनबी है ।प्यार और सत्कार से वक़्त के साथ सब सहज होने लगता है ।

 दहेज जैसी बात तो आज शोभा ही नहीं देती ।अगर अभी भी आप वहीं अटके हैं तो आप पुराना रेकोर्ड हो गये हैं । अब ग्रामोफ़ोन ही नहीं बजते तो रेकोर्ड किस गिनती में ।अब बेटियाँ बेटों से कम नहीं हैं ; कमाने में भी और आपका घर , आपकी पीढ़ियों को सुसंस्कृत बनाने में भी ।

अहं की लड़ाई को पीछे छोड़ दीजिये।टकरा कर आप खुद तो ख़त्म होंगे ही , परिवार की सुख-शान्ति भी ख़त्म हो जायेगी ।अगर आप अपने बेटे को प्यार करते हैं तो निस्संदेह उसके शुभचिन्तक भी होंगे : फिर आप खुद ही उसकी ख़ुशी को ग्रहण कैसे लगा सकते हैं ! बेटे की हर ख़ुशी , सुख-चैन बहू के साथ है ; आप को हर सम्भव कोशिश करनी चाहिये कि उनके बीच केमिस्ट्री बनी रहे ।तभी आप समझदार कहे जाएँगे ।

जरा सोचिए , ये वही लड़की है जिसे आप बैण्ड-बाजे के साथ झूमते हुए ब्याहने गए थे ।जिसकी माँ ने सोचा था जैसे विष्णु भगवान उसकी बेटी लक्ष्मी को लेने उसके द्वार पर आये हैं ।कहीं कोई सहमा हुआ सा डर भी किसी कोने में बैठा हुआ था , फिर भी वो उसे दर-किनार कर उस अनजान लड़के का , उसके परिवार का दिल से अभिनंदन करती है ।तो क्या आप इस लायक़ नहीं थे ? क्यों कड़वाहट के बीज बो रहे हैं ? वक़्त सिर्फ़ उसका है जो उसे अपना मान कर , अपना बना कर चलता है ।जो वक़्त चला जाता है , लौट कर कभी नहीं आता ।इसलिए वक़्त को यादगार बनाइये । आपकी दी हुई ख़ुशी बरसों बाद भी लौट कर आप तक जरुर आयेगी ।

सोमवार, 15 अगस्त 2022

पुस्तकें , सच्ची साथी

बचपन की प्राइमरी क्लास से लेकर ग़ूढ़ विषयों तक की पढ़ाई में पुस्तकें ही हमारा सहारा बनती हैं ।पुस्तकें ही सच्ची साथी साबित होती हैं , क्योंकि ये लगातार आपसे संवाद करती रहतीं हैं ।

पुस्तकें ख़ालीपन की , अकेलेपन की साथी होतीं हैं । आप घण्टों पुस्तक में रम सकते हैं। वक्त गुजरने का पता ही नहीं चलेगा।आप जिस तरह की पुस्तकों का चयन करते हैं वो आपके व्यक्तित्व पर प्रकाश डालता है ।उनका असर गहरा व देर तक या यूँ कहिए सारी उम्र रहता है ।आपकी रुचि साहित्यिक , जासूसी ,चरित्र- निर्माण , अभिप्रेरक , आध्यात्मिक इत्यादि पुस्तकों में हो सकती है ।

पुस्तकें आपको दर्द की गहराई से वकिफ़ कराती हैं तो करुणामय बनातीं हैं ।सामान्य ज्ञान से ले कर देश-विदेश , ज्ञान-विज्ञान , आदि से अन्त तक सम्भावनाओं से परिचय करातीं हैं ।शब्दावली के विस्तार से बोलचाल का कौशल बढ़ाते हुए आत्मविश्वासी भी बनातीं हैं ।बहुत सारे क्यों , कैसे , कब के उत्तर आपको मिल जाते हैं ।कल्पना से परिचय करातीं हैं , जागरूक बनातीं हैं ।ये आपको तार्किक ,बुद्धिमान ,कल्पना-शील ,रचनात्मक बनाने में सक्षम हैं ।

पुस्तकें आपकी विचारधारा को बदलने की ताक़त रखतीं हैं ।चरित्र-निर्माण में इनका महत्व-पूर्ण योगदान होता है । इनके पठन से प्रेरणा मिल सकती है , जीवन का उद्देश्य मिल सकता है और आपका सँसार को देखने का दृष्टिकोण बदल सकता है । बुद्धिजीवी वर्ग की भावनात्मक भूख किताबें हो सकतीं हैं । सकारात्मक सोच के साथ ये व्यक्तित्व निर्माण में अहम भूमिका निभाती हैं व बेहतर इन्सान बनाती हैं ।

पुस्तकें यानि साहित्य समाज का आईना होता है ।कवि तो बड़े से बड़ी बात को थोड़े शब्दों में कह लेता है । कहानीकार कहानियों द्वारा समाज के हालात को अभिव्यक्त कर कुरीतियों पर ध्यान दिलवाते हैं ।समाज में जोश और होश भरते हैं ।गीत नहीं लिखे गये होते तो मनोरंजन का साधन कैसे बनते ।

पुस्तकें पढ़ने का अहसास अलग ही होता है ।अच्छी पुस्तकें पढ़ने से जीवन बदल जायेगा।जीवन मूल्यों की शिक्षा भी अभिभावकों के अलावा हमें पुस्तकें ही दे सकती हैं ।पुस्तकें ही सुन्दर मानव सभ्यता का आधार हैं ।इसलिए सोच-समझ कर सकारात्मक विचारों वाली पुस्तकें ही पढ़ें ।ये अँधेरे में भी मार्ग दर्शन करेंगी ।जो पुस्तकें उत्तेजना , क्रोध और क्षोभ से भर दें यहाँ तक कि आप स्व-नियंत्रण तक खो दें या जो मानवता के लिए हितकारी न हों उन्हें अपनी सूची में शामिल न करें ।

किताबें गुफ़्तगू करती हैं 

आ जाती हैं कहीं रोकने ,कहीं टोकने 

सहेली की तरह कानों में फुसफुसातीं हैं 

साथ चलतीं हैं उम्र भर 


बुधवार, 9 मार्च 2022

शहर की साफ-सफ़ाई

 जनप्रतिनिधि हम में से ही , हमारे द्वारा व हमारे लिए ही चुने जाते हैं ।जो धन-राशि जन कल्याण योजनाओं पर खर्च होती है वो सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाती है । विभिन्न प्रकार के करों द्वारा सरकार फंड इकट्ठा करती है ।घूम-फिर कर पैसा भी हमारा ही है और खर्च भी हम पर ही होना है ।विडम्बना ये है कि योजना की रूप-रेखा तैयार करते वक्त इतने ज़्यादा बजट का ब्यौरा दिया जाता है कि आधे से ज़्यादा राशि सम्बंधित लोगों की जेबों में जाती है ।ये पूरी एक चेन है ।और फिर वाह-वाही लूटी जाती है ।इस प्रक्रिया में जिसे ज़मीर कहते हैं वो तो नदारद ही है ।ये तो ठीक है कि काम होना चाहिए मगर क्या इस लेवल तक गिर कर ।

अब अपने शहर में चारों तरफ नज़र दौड़ाइये।प्लास्टिक और कचरे के ढेर हैं चारों तरफ ,तरक़्क़ी के नाम पर ये क्या हाल हो गया तेरा , ऐ मेरे शहर

रूद्रपुर शहर के ज़्यादातर सभी नालों का यही हाल है ।गन्दगी से अटे पड़े हैं ।जिधर देखो नालों में प्लास्टिक की पन्नियाँ और कचरा भरा हुआ कीचड़ खड़ा है ; जो मच्छरों और बीमारियों को दावत दे रहा है ।सड़कें कितनी भी साफ रख लें , दुकानें आलीशान हों , मगर ये गन्दगी तो अव्यवस्था का सारा कच्चा चिट्ठा खोल रही है ।आप रेलगाड़ी से सफर करिए , घरों के पीछे ट्रैक के आसपास तो हर शहर में यही हाल दिखेगा ।

आवश्यकता है इन नालों की अविलम्ब व नियमित सफ़ाई व निरन्तर बहाव को बरकरार रखने के लिए समुचित व्यवस्था की व जन जागरण की भी ।सड़क पर व नालों में प्लास्टिक की थैलियाँ व अन्य कचरा कभी नहीं फेंका जाना चाहिए ।इसके लिए निर्देशित दूरी पर कूड़ेदान रखे जाने चाहिए । स्वच्छता अभियान चलाया जाना चाहिए । बच्चों को स्कूलों में ये शिक्षा देनी चाहिए और घरों में बड़ों को अपने आचरण से सिखाना चाहिए ।विदेशों जैसी चमचमाती साफ-सुथरी सड़कें हमारे यहाँ क्यों नहीं हो सकतीं ? 

वैसे तो पूरे शहर का हाल ऐसा ही है ।मगर रेलवे-स्टेशन और उस से लगी कालौनी के बीच बने नाले की दुर्गति तो देखते ही बनती है ।सोढी कालौनी की तरफ तो सारा कूड़ा ही इसमें डाला जाता है ।बिना पुल के मिट्टी डाल कर आने जाने का रास्ता बना लेने से बहाव भी रुका हुआ है ।इस तरह साथ की दूसरी फ़्रेंड्स कालौनी का बहाव भी रुका हुआ है । खड़ा बदबूदार पानी गन्दगी और मच्छरों का घर बना हुआ है ।आवश्यकता है कि प्रशासन इसकी जल्दी से जल्दी सुधि ले ।

हम जगह-जगह प्लास्टिक का कचरा डाल कर इस धरती को कितने सौ सालों के लिए दूषित कर रहे हैं ; ये कई सौ सालों तक मिटाया न जा सकेगा । प्लास्टिक अगर कूड़े में जलेगा तो पर्यावरण दूषित होगा । धुएँ में , हवा में घुल कर हमारे फेफड़ों को संक्रमित करेगा ।

आवश्यकता है कि चुने हुए जनप्रतिनिधि विकास के साथ-साथ इस ओर विशेष ध्यान दें ; क्योंकि ये स्वास्थ्य के साथ-साथ शहर की सुन्दरता का सवाल भी है ।


सोमवार, 20 सितंबर 2021

सोशल मीडिया

 दिल पर मत ले यार , ये सोशल मीडिया है। इंटरनेट की दुनिया आभासी है , आभास तो होता है, मगर कितना सार है इसमें , कितनी वास्तविक है , कह नहीं सकते । कितने कमेंट्स, कितने लाइक्स ! मिलें तो ख़ुश न मिलें तो नाखुश , इस सबमें क्यों उलझें हम , हमने अपना काम किया , उसकी वो जाने। कई बार तो इष्ट-मित्र देख भी नहीं पाते क्योंकि जब उनकी फ़्रेंड लिस्ट लम्बी होती है तो हो सकता है आपका मेसेज स्क्रोल में बहुत नीचे पहुँच जाता हो। कई बार सोशल मीडिया पर आने का वक्त ही नहीं मिलता। अरे भई, और भी ग़म हैं जमाने में इस फेसबुक और वाटस एप के सिवा 😁 ! साथ ही ये भी सच है कि कई बार लोग प्रतिक्रिया देना भी नहीं चाहते ; खुद को ही देख लो अपना मन ही कितनी जल्दी-जल्दी बदलता है । आज कोई बड़ा अपना लगता है तो कल वही बड़ा ग़ैर या बेग़ैरत। क्यों उम्मीद रखनी है दुनिया से ? यहाँ अटकने की जरुरत नहीं है। वैसे फोटो के साथ डाला गया संदेश ज़्यादा असरकारक होता है। सिर्फ़ लिखा हुआ कम लोग पढ़ते हैं ; रुचियाँ भिन्न-भिन्न होने पर भी आपका मेसेज सब लोग नहीं पढ़ेंगे ।

वाटस एप और फ़ेसबुक ने प्रोफेशनल्स की ऐसी टीम बनाई हुई है जो धार्मिक अंधविश्वासों , देशप्रेम के नाम पर या खोए बच्चों या बीमार लोगों के नाम पर झूठी-सच्ची ऐसी पोस्ट्स बना कर फ्लो करते रहते हैं कि लोग उस पर कमेंट्स करते रहें या चर्चा करते रहें और लगे रहो मुन्ना भाई की तर्ज़ पर नकारा हो जाएँ और उनकी चाँदी ही चाँदी हो क्योंकि ये वेबसाइट्स तो फलफूल रही हैं। धार्मिक तस्वीर के साथ लिखेंगे जो आज इस पर ‘जय हो’ लिखेगा उसकी मनोकामना पूरी होगी । या कुछ डरावने मेसेज भी होंगे । भला सिर्फ़ लिखने से किसी का भला हो जायेगा या वो व्यक्ति धार्मिक कहलायेगा ? आज धार्मिक स्थल के चक्कर पे चक्कर लगाने वाला या बहुत पूजा पाठ करने वाला भी जरुरी नहीं कि अच्छा इन्सान ही हो। इंसानियत पर जो न पसीजा तो कैसा अच्छा दिल ! ऐसे मैसेजेस से डरने की जरुरत ही नहीं होती ये आपको धर्म- भीरु बनाते हैं , कर्म बुरे नहीं तो क्या डर ? इन पोस्ट्स पर कम्मेंट्स करने पर आप इन्हें लगातार फ्लो में बनाये रखते हैं ।

आज सोशलमीडिया ने अभिव्यक्ति के लिए कितने सारे प्लेटफ़ार्मस हमें दिये हैं ; ट्विटर , लिंकड-इन ,टैगड , इंस्टाग्राम ,स्नैपचैट , फ़ेसबुक ,ब्लॉग राइटिंग, यू- ट्यूब आदि। कल तक अख़बार या पत्रिका में छपवाने के लिये भी हमें हील-हुज्जत करनी पड़ती थी पर आज एक क्लिक के साथ हम दुनिया के सामने होते हैं ।अभिव्यक्ति की आज़ादी और सर्व-सुलभता के नाम पर हमें इसका अनुचित उपयोग नहीं करना चाहिये ; इसलिये सिर्फ़ ऐसा परोसें जो सबके हित में हो , जो किसी दिल को उठाये , इंसानियत के लिये हितकारी हो , किसी को राहत दे , उसे लगे उसकी अपनी ही बात है ।

आज कोई भी सोशल-मीडिया से अछूता नहीं रह सकता है , ये हमारी दैनिक दिनचर्या का अभिन्न अँग बन गया है । इसने व्यवसाय , नौकरियों , बुकिंगस , पढ़ाई , बैंकिंग ,शॉपिंग , मीटिंग्स , वीडियो- कालिंग आदि को इतना सुविधाजनक कर दिया है कि इसके बिना रहने की बात सोची भी नहीं जा सकती ।आज कोरोना काल ने तो इसके महत्व को और भी उजागर कर दिया है ।

इतने सारे फ़ायदों के बीच इसके नकारात्मक प्रभाव भी आ रहे हैं ,जैसे इसके इस्तेमाल का फोबिया , डिप्रेशन ,कंस्ट्रेशन की कमी , सोशल अलगाव , औरों के साथ खुद की तुलना करना , रोज़मर्रा की गतिविधियों में कमी। कभी-कभी तो फ़ेक लोगों के सम्पर्क में आ कर फँस जाते हैं। तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर, भ्रामक और नकारात्मक जानकारी साझा करने से जनमानस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बड़ी सरलता से ये सब तक पहुँच जाते हैं । फ़ोटो और जानकारी शेयर करने से प्राईवेसी तो भंग होती ही है ।

अब ये हम पर है कि हम इसका कितना सही उपयोग करते हैं। कोरोना काल में जहाँ हम बाहरी दुनिया से भौतिक रुप से कटे, नेट ने हमारी दुनिया को ही विस्तार दे दिया। कई लोगों को इसने नई पहचान दी , कितने ही लोगों को रोजी-रोटी दी , क्रियेटिविटी को मंच दिया। कितने ही कुकरी, क्राफ़्ट ,म्यूज़िक बैंड ,टीचिंग क्लासेज़, बुटीक के यू-ट्यूब चैनल्ज़ इसी वक्त की देन हैं। सामाजिक अभियान चलाने के लिये भी सोशल मीडिया से बढ़ कर कोई प्लेटफ़ार्म नहीं है। बस ये हम पर है कि हम कितनी सही दिशा पर हों। रिश्तों को मजबूती देने में भी इसका जवाब नहीं ; दूर बैठे हुए भी आप एक सौहार्द-पूर्ण टिप्पणी देकर या एक फोन कॉल कर रिश्तों में अपनत्व बनाये रख सकते हैं ।

इसलिए दिल पर मत लो , आगे बढ़ चलो , इसके बिना काम नहीं चल सकता , मगर इसको उतना ही समय और महत्व दो जिसमें आपकी बाकी दिनचर्या पर असर न पड़े ।😁😁

शनिवार, 24 अप्रैल 2021

ज़िन्दगी एक बार , तो क्यों सोचें दो बार


कोविड की लहर उठी है , आपको भी सदभावना की लहर उठानी है । ये भी सच है कि आपको खुद को सुरक्षित साइड रखना है मगर ये भी तय है कि इस लहर में कौन-कौन बच रहेगा और कौन-कौन इसके साथ जायेगा।ज़िन्दगी जो एक बार ही मिली है तो ज़्यादा सोचें मत , जो अच्छा कर सकें , कीजिए।कोई अफ़सोस या किसी अपराध बोध को जगह मत दीजिए। इंसानियत बची तभी इन्सान बचेंगे ।आलोचना में कुछ नहीं रखा । हम आप से ही सरकार बनी है , संसार बना है । हम आप ही व्यवस्था के लिये ज़िम्मेदार हैं ।किसी दिल को बदलना है तो पहले खुद को बदलिए ।ये मुश्किल वक्त है , सहयोग से कटेगा ।


मेरे देश का इक इक नागरिक लड़ रहा है लम्बी लड़ाई
खतरे में है वजूद
अदृश्य है दुश्मन
बचा रहे इन्सान का नामों-निशाँ

आओ सब एक साथ
भूल कर सारे भेद , बैर-भरम
सिर्फ हौसले की जंग काफी नहीं
जुनूने-जोश की भाषा समझता है दिल
प्रेरणा ही वो शय है जो जीत का सबब बनती है
जीतेंगे हम , मनुष्य की लड़ाई है मनुष्यता के लिए
इन्सान बचाओ , इंसानियत बचाओ
Save humans , Save humanity

बुधवार, 25 नवंबर 2020

फ्रैंकफर्ट मेरी नजर से

 बादलों के झुण्ड .... जैसे रुई के अम्बार लगे हों , जिन्हें चीरता हुआ प्लेन सुबह-सुबह जर्मनी फ्रैंकफर्ट के आसमान से जब नीचे उतर रहा था ; गहरे हरे रँग के जँगल , हलके धानी और पीले रँग के खेत , खिलौनों जैसे घर साफ़ दिखाई देने लगे थे।इमिग्रेशन और सिक्योरिटी की औपचारिकताओं के बाद जब हम एयर-पोर्ट से बाहर आये ,बच्चे दूर से ही इन्तिजार करते दिख गये। एयर-पोर्ट पर कोई मारामारी नहीं ,बहुत कम लोग दिखे ,सामान के लिये भी कोई चैकिंग नहीं। 

मैने अभी तक इतना साफ-सुथरा ,सुनियोजित ,ट्रैफिक रूल्ज फॉलो करने वाला शहर नहीं देखा था। हॉर्न तो बजते ही नहीं थे ,गाड़ियाँ भी एक निश्चित दूरी रख कर चलतीं थीं। सड़कों पर दोनों ओर साईकिल चलाने वालों के लिये और पैदल चलने वालों के लिये दो अलग-अलग सड़कें थीं। सड़क पार करने के लिये क्रॉसिंग पर ग्रीन सिग्नल होते ही सड़क पार करने के लिये टीं- टीं की आवाज़ भी होती ताकि कोई ब्लाइंड पर्सन भी सड़क पार करना चाहता है तो आराम से कर ले। 

सभी तरफ खुलापन ,ज्यादातर पाँच-मंजिली इमारतें ,हर लाल-बत्ती के पास मेट्रो-स्टेशन्स दिखे। ये देश महँगा जरूर है ,मगर सरकार की तरफ से सुविधाओं की कोई कमी नहीं है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट और मेट्रो स्टेशन पर टिकट देने के लिए कोई है ही नहीं। आपको खुद ही मशीन में जगह का नाम व पैसे भरने हैं और टिकट या मंथली पास निकालना है। मैं हैरान थी कि कहीं कोई मशीन चेक करने के लिये भी नहीं थी। फिर पता चला कि कभी-कभी सरप्राइज चैकिंग होती है , बेटिकट लोगों पर तगड़ा जुर्माना लगता है। इसलिए कोई भी बेटिकट सफर नहीं करता। 
सामान खरीदने जाओ या आसपास जो भी मिलता है अभिवादन में हलो जरूर बोलता है। वैसे वो किसी की भी ज़िन्दगी में दखल नहीं देते। 

  राइन नदी फ्रैंकफर्ट से लगी हुई बहती है । पूरे तट पर साइक्लिंग के लिए सड़क और घास ऊगा कर मनोरम पार्क विकसित किये हुए हैं। राइन नदी के ब्रिज पर ताले बँधे हुए थे ,पूछने पर पता लगा कि यहाँ विश माँगी जाती है , मान्यता है कि वो पूरी हो जाती है। फोटो देखिये ...दूर से नजर आते हुए आसपास के गाँव और खेत....मनोरम दृश्यों से भरपूर। 





गर्मियों में सुबह साढ़े पांच बजे सूरज अपनी किरणों के लाव-लश्कर के साथ दस्तक देने लगता।  रात होती साढ़े दस बजे। अब घड़ी देख कर  सोओ जागो।शाम सात बजे सारे बाजार बंद हो जाते ,मगर उजाला तो दस बजे बाद भी रहता ; मगर सड़कें सूनी होतीं ,रेस्टोरेंट्स खुले रहते। आबो-हवा हमारे नैनीताल वाली और विकास किसी मेट्रोपॉलिटिन सिटी सा। 

फड़ या अतिक्रमण कहीं नहीं। रैस्टौरेंट्स के बाहर खुली जगह में टेबल चेयरस लगीं रहतीं .टी. वी. पर मैच देखते हुए ,बड़े-बड़े बियर और व्हिस्की के ग्लास भर कर बैठे लोग ,ज़िन्दगी को भरपूर जीते हुए लगते। ऐसा नहीं कि एल्कोहल पीने वाले लोग ही ज़िन्दगी को पूरी शिद्दत से जीते हों।  यहाँ के लोगों के लिए ये उनके आम खान-पान का हिस्सा है ,शायद आबो-हवा की माँग भी, और ये उनके जीने का अन्दाज़ भी। एक डिश और एक ड्रिंक ऑर्डर करना ही उनका रोज का लन्च या डिनर भी। कहीं कोई हँगामा नहीं करता। सारे स्टोर्स में सभी तरह की एल्कोहल आम ग्रौसरी की तरह ही उपलब्ध रहती। 

इंग्लिश में काम चल जरूर जाता है मगर जर्मन सीखे या जाने बगैर आपकी ज़िन्दगी यहाँ बहुत आसान नहीं हो सकती। स्ट्रीट यहाँ स्ट्राज़ो होती है और यूनिवर्सिटी होती है यूनिवर्सिटैट , मेट्रो बान और रेलवे-स्टेशन हाफबानऑफ। 
बुलेट ट्रेन से पेरिस जाने के लिये जब स्टेशन गये तो मैं हैरान रह गई कि तेइस-चौबीस प्लैटफॉर्म्स के लिये एक ही प्लैटफॉर्म से ब्रांचेज बन गईं हैं। आपको कोई ब्रिज पार नहीं करना। ट्रेन के दोनों तरफ इंजन हैं। एक तरफ से गाड़ी आई और उसी रास्ते पिछले इंजन से वापिस चली जायेगी .आदमी का वक्त कीमती है भई। टिकट पर स्टेशन का प्लेटफार्म लिखा रहता। स्क्रॉल की सुविधा भी हर जगह। लोकल बस ट्रॉम ,मेट्रो हर जगह स्क्रॉल , 6 .14 तो  6 .14 और 5.19 तो  5.19 पर बस स्टॉप पर पहुंचेगी , कोई शोर नहीं , मेट्रो हर तीन मिनट में।फोन में ऐप डाउनलोडेड रहते ट्रान्सपोर्टैशन सुविधाओं की समय सारणी के भी , किसी से पूछने की भी जरुरत नहीं। 

हर स्टोर में प्लास्टिक की बोतलें रिसाईकिल करने की मशीन लगी है। पैसे सामान में रीइम्बर्स हो जाते।पब्लिक जगहों पर कांच की बोतलों को डिस्पोज़ ऑफ़ करने के लिए तीन तरह की मशीनें लगीं हैं ,ब्राउन ,ग्रीन और सफ़ेद। हर जगह कूड़ेदान और सफाई।इतनी जागरूकता सरकार की भी और जनता की भी !

 यहाँ सब तारें अंडरग्राउण्ड ही है ,कहीं कोई खंबे या तारें हवा में नहीं लटकते। कहीं कोई केबल मरम्मत होनी थी।मैंने देखा कि छः आदमी दो मीडियम से ट्रक ले कर आये.सड़क के पत्थर उखाड़े , मिट्टी निकाली ,उसे एक ट्रक में भर लिया। केबल की तारों को अलग-अलग बाँधा , ट्रक से डिवाइडिंग बार्स निकालीं ,गड्ढे और चौड़े पत्थरों के इर्द-गिर्द पार्टीशन खड़ा कर दिया ताकि गलती से भी कोई दुर्घटना ना हो। अगले दिन ही वो जगह बिल्कुल नार्मल सड़क की तरह थी। सारी फैक्टरीज और फर्नीचर्स की दुकानें शहर से दूर हैं ताकि लोगों को असुविधा न हो। 

दवाइयाँ बिना डॉक्टर के प्रिसक्रिप्शन के नहीं बिकतीं। सेहत के लिए कितनी जागरूकता है। ज्यादा लोग साइकिल चलाते मिलते। बच्चों के बड़ों के तरह-तरह के साइकिल ,प्रैम ,और हेल्मेट्स देखने को मिलते हैं। इतने प्यारे बच्चे ,जैसे किसी डॉल हॉउस में आ गए हों। वक्त को भरपूर जीना कोई इनसे सीखे।पार्कों में दरियाँ बिछा कर , धूप सेंकते हुए लोग , पिकनिक मनाते हुए , व्यायाम और खेल-कूद करते हुए अक्सर हर सप्ताहाँत दिख जाते। 

मैं अचरज से भी देख रही थी और अभिभूत भी थी , सोच रही थी कि ये सब हमारे भारत में क्यों नहीं हो सकता। हमारी जनसँख्या इतनी ज्यादा है कि जगह की कमी ,सुविधाओं की कमी और इसके साथ हमारी नीयत सबसे ज्यादा जिम्मेदार है ;पब्लिक वाली सुविधाएँ तो हम घर उठा कर ले जाएँ। भ्रष्टाचार की वजह से विकास की सारी योजनाएं धरी की धरी रह जाती हैं।फाइनेंस कैपिटल फ्रैंकफर्ट की जनसख्याँ 2017 के आँकड़ों के हिसाब से सात लाख पन्द्रह हजार और हमारे दिल्ली की 2011 के आँकड़ों के हिसाब से तकरीबन सवा करोड़। 

रविवार, 4 अक्तूबर 2020

समाज की उधड़ती परतें : नशा

 समाज की पर्तें उधड़ रही हैं , नेपोटिज्म ,पॉलिटिकल कनेक्शन ,ड्रग कनेक्शन और रिश्तों की टूटन । रिश्तों की टूटन अन्ततः डिप्रेशन की तरफ ले जाती है। ये साफ़ होता जा रहा है कि आज की आर्टिफिशयल चमक-दमक भरी दुनिया किस तरह नशे की गिरफ़्त में आ चुकी है। 


ड्रग्स पार्टीज करना महज़ मनोरँजन के लिए या शौक नहीं है ;यहाँ तलाशे जाते हैं मौके यानि ऊपर चढ़ने की सीढ़ियाँ । वही लोग जो यहाँ किसी उद्देश्य से आते हैं वो खुद कभी किसी के लिए सीढ़ी नहीं बनते ; बल्कि दूसरों के पाँव के नीचे की जमीन तक खींचने के लिए तैय्यार रहते हैं । पहले-पहल कोई मॉडर्न होने के नाम पर ड्रग्स चखता-चखाता है ;फिर धीरे-धीरे ये लत बन जाता है ,जैसे धीमे-धीमे कोई जहर उतारता रहता है अपनी रगों में ।

एक दिन ये भी आता है कि नशा जरुरत बन जाता है शरीर की भी और मन की भी। आदमी भूल जाता है कि जिस दीन-दुनिया की खातिर नशे को गले से लगाया था ,वही दुनिया उसे अब छोड़ने लगती है। हर अप्राकृतिक चीज के साइड इफेक्ट्स होते हैं। नशा शरीर को खोखला कर देता है। ज्यादा दवाइयाँ और हारमोन्ज़ माइकल जैक्सन की हड्डियों तक को खोखला कर गए थे ;सभी जानते हैं कि कितनी कम उम्र में वो दुनिया को अलविदा कह गए। कामयाबी ,शोहरत ,पैसा किसी भी काम न आया। जिस सेहत को आप हजारों रूपये दे कर भी खरीद नहीं सकते ; उसे दाँव पर लगा देना , इससे बड़ी नादानी क्या होगी। 

कैसी विडम्बना है कि नशा जिस मानसिक स्थिति को उठाने के लिए किया जाता है , उसी को घुन की तरह खाने लगता है। ये जितना चुम्बक की तरह लुभाता है ,उतना ही आप ज़िन्दगी से दूर होते जाते हो।  धीरे-धीरे नकारा होते जाते हो। जब आँख खुलती है तो ज़िन्दगी का कोई मक्सद ही नजर नहीं आता। खोखली ज़िन्दगी और खोखला मन डिप्रेशन और बीमारियों की तरफ धकेल देता है। 

 तक़रीबन पन्द्रह साल पहले अखबार में छपा था किशोरावस्था के स्कूल जाने वाले बच्चे इंक इरेजर या वाइटनर का इस्तेमाल कर रहे हैं नशे के लिए। फिर इनकी सेल बैन कर दी गई थी। चिंता का विषय है कि इतने छोटे बच्चों को ये लत किसने लगाई ,किसने उन्हें ये रास्ता दिखाया। ड्रग्स बहुत गहरे अपनी पैठ बनाये हुए हैं। जब दाल बीनने बैठेंगे तो सारी दाल ही कहीं काली न मिले।  

ड्रग्स की खोज दवा की तरह की गई थी और लोगों ने इसे कारोबार बना डाला ;अमीरी का सबसे आसान रास्ता। मौज-मस्ती की आड़ में हमें पता ही नहीं चलता कि हम अपने नैतिक मूल्यों से कितनी दूर आ गये हैं। आडम्बर करते-करते अपनी ही दुनिया में आग लगा बैठे है। नींव खोखली हो तो किसी भी समाज का भविष्य दाँव पर लगा होता है।  अब जब समाज की पर्तें उधड़ने लगीं हैं। पर्त -दर-पर्त कितने ही लोग नपेंगे। 

आप खोजिये इस नकली चौंधियाती दुनिया में असली रिश्तों को ,किसी छाँव को , किसी आराम को। अब आप बहुत दूर निकल आये हैं। आपके हाथ से बहुत कुछ छूट गया है। दो बूँद ज़िन्दगी की चाहिए थी और आप नशे को , भटकाव को गले से लगा बैठे।