कोई कितना ही इरेजर (रबर ) लेकर कोशिश करले , अपने अतीत को यादों से मिटा नहीं पाता है । जब तब खुद ही अपने नाखूनों से , भर आई हुई खरोंचों को कुरेदने लगता है और खुद को ही लहूलुहान कर लेता है । सोये हुए अतीत की मिट्टी पर हवा करता है , अतीत का भूत जिसे आदमी ने कस के पकड़ रक्खा है ...आगे चलने कब देता है , सारा व्यक्तित्व रुआँसा सा हो उठता है ।
बड़ा शौक है न , क्रमवार , ब्यौरेवार , सिलसिलेवार संग्रहालय बनाने का । टॉपिक छेड़ा नहीं कि किताब खुली नहीं । हम उलझे हैं तस्वीरों में , तकदीरों में , तदबीरों में । तो क्या तस्वीरें भी न देखें ? देखो देखो , एल्बम इसी लिए बनाई जाती है , मगर उस वक्त भी दुखी थे तो भी तस्वीरें देख कर दुखी ही होओगे ...और खुश थे तब भी दुखी ही होओगे ...देखो मगर दूसरे आदमी की तरह , वो दूसरा आदमी जो समय से परे ...जो चीजों को गुजरता हुआ ...घटता हुआ देख सके । जैसे कोई और ही होओ , वर्ना वो मैय्यत सूखने न पायेगी । कोई इरेजर दुखों के अहसास को रब नहीं कर सकता जब तक हम खुद ही , उससे सबक लेकर , उसे काँटे की तरह भूल न जाएँ ; थोड़ा यत्न , थोड़ा दर्द , थोड़ा मरहम और थोड़ा समय और हम वापिस तन्दुरुस्त ।
जिन्दगी रोज दवा देती है
दुखती रगों को हौले से हिला देती है
तन जाते हैं जब तार मन के
कैसी कैसी तानों को बजा देती है
जिन्दगी हो रूठी सजनी जैसे
तिरछी निगाहों से इम्तिहान लेती है
जगते बुझते हौसलों को
हवाओं से हवा देती है
कडवे घूँटों सी दवाई उसकी
माँ की घुट्टी , घुड़की सा असर देती है