सोमवार, 26 जून 2017

छूटते जा रहे दादी-नानी के घर

सभी लोग छुट्टियों का भरपूर लुत्फ़ उठाते हैं। पहाड़ों की हसीन वादियों का सफर हो या गोवा , महाराष्ट्रा , दक्षिण भारत या देश-विदेश के समुद्री तटों की सैर हो ; हर बार किसी नई जगह को नापने की इच्छा मन में जागती है। तरह-तरह के लज़ीज व्यँजन और रैस्टोरेन्ट्स का स्वाद मन को लुभाता है। पर्यटन को बढ़ावा देना व अपने विभिन्न प्रान्तों की सँस्कृति से परिचय देशाटन के जरिये जरूर सम्भव है। 

इंटरनेट ने घूमने-फिरने की सम्भावनाओं को सर्व-सुलभ और सुविधा-जनक कर दिया है। मगर इस सब में छुट्टियों में नानी-दादी के यहाँ जा कर लम्बी छुट्टियां मना कर आना बंद सा होता जा रहा है। छुट्टियों में बुआ , मामा , मासी , चाची , सबके बच्चों का जमावड़ा , साथ मिल-बाँट कर खाना , खेलना , काम करना और चौपाल जमाना , इस सब का मजा ही कुछ और था। दादी नानी के किस्से-कहानियों के साथ कब अच्छे सँस्कार बच्चों के दिल में उतर जाते ; पता ही नहीं चलता था। आज नेट और मोबाइल की दुनिया में डूबे बच्चे आभासी रिश्तों में जी रहे हैं। अपने आस-पास की जीती-जागती दुनिया से मुँह मोड़ कर कई बार हम अपने जरुरी काम भी पूरे नहीं कर पाते। शारीरिक खेल-कूद अब छूटते जा रहे हैं। वो अपनत्व , मजबूत भावनात्मक जुड़ाव ,जीवन मूल्य और प्रगाढ़ रिश्ते जैसे हम खोते जा रहे हैं। 

किताबें पढ़ने का वक़्त किसी के पास नहीं है। कोई भी देश अपने कविओं और साहित्यकारों की रचनाओं से समृद्ध माना जाता है।न तो आज किसी के पास पढ़ने का समय है न ही लिखने का। किण्डल , नेट और टी. वी. पर आँखें गढ़ाये बच्चों की आँखों पर चश्मा भी कम उम्र में ही चढ़ जाता है। 

गाँवों के चबूतरे अब सूने पड़े हैं। पार्टी करना आज भी सब बच्चों को पसन्द है ; मगर औपचारिकताएं ( फॉर्मेलिटी ) सबको आसानी से मिलने नहीं देतीं। बचपन उस अपनत्व और उन जीवन मूल्यों के बिना अधूरा है। कुल मिला कर हमने खोया ज्यादा और जो पाया वो ज्यादा सुकून नहीं पहुँचा सका।  

नई पीढ़ी के बच्चों ने नहीं देखा
धूप के रँगों को साँझ में घुलते हुए
हो गये हैं प्रकृति से दूर
खुद में उलझे हुए


कैसी होती है सुबह
नहीं देखा पूरब में सूरज को उगते हुए
नहीं देखा हवाओं को ,
चिड़ियों सा चहकते हुए


तुम्हारे घर में है भैंस , पेड़ ,
बिल्ली और बच्चे खेलते हुए
नहीं देखा शहरी पीढ़ी ने
जिन्दगी की खनक को गीत में ढलते हुए
नहीं देखा मिट्टी की सनक को ,
रूह में मचलते हुए
नई पीढ़ी के बच्चों ने नहीं देखा



बुधवार, 21 जून 2017

हर कोई अपनी-अपनी मनःस्थिति में जीता है

हम सभी लोग ज्यादातर अपनी अपनी परिस्थितियों के गुलाम हैं। ऐसा क्यों होता है कि कई बार किसी से बात करते हैं तो वो अचानक ऐसी प्रतिक्रिया देता है जो हमारी आशा के विपरीत होती है। हमें हैरान कर देने वाले नतीजों का सामना करना पड़ता है। किसी के दिल में क्या चल रहा है , कोई नहीं जानता।


हमारी अपनी पूर्व-निर्धारित धारणाएँ , सँस्कार ,आस्थाएँ और विष्वास हमें चलाते हैं। हमने धोखे खाये हैं तो सारी दुनिया के लिये एक ही दृष्टिकोण बना लेते हैं। अचानक विस्फोट जैसी प्रतिक्रिया ये बताती है कि उसका मन विक्षोभ से भरा हुआ है , और ये किसी एक दिन की सोच का नतीजा नहीं होता। किसी के बारे में हम एक बार कोई राय कायम कर लेते हैं तो फिर टस से मस नहीं होते। जबकि हमारा अपना मन पल-पल बदल रहा है। परिस्थितियाँ बदलते देर नहीं लगती , मगर हम पर कैसे-कैसे प्रभाव छोड़ कर जाती हैं।मकड़ी की तरह अपने ही ख्यालों के बुने हुए जाल में फँसना नहीं चाहिए। 

हमारी सकारात्मक भावनाएँ (इमोशन्स ) ख़ुशी , अपनत्व , प्रेरणा और प्रफुल्लता लाते हैं। नकरात्मक भावनाएँ द्वेष , झगड़ा , तुलना ,आत्म-हीनता का बोध हमेशा गुस्सा और उदासी लाते हैं। हर भावना एक केमिकल रिएक्शन करती है। हमारे शरीर में ऐसे केमिकल सिकरीट करती है जो हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता को प्रभावित करते हैं। नकारात्मक भावों के साथ सिर दर्द ,ब्लड-प्रेशर , डायबिटीज , मोटापा, गैस ,अल्सर , डिप्रेशन आदि तनाव जनित बीमारियाँ हो सकती हैं। कोई भी रोग हो नकारात्मकता के साथ तेजी से बढ़ता है। यदि भावनाएँ सकारात्मक हों तो बीमारी जल्दी ठीक हो जाती है। सकारात्मक सोच रखने वाले को बीमारी जल्दी पकड़ती ही नहीं। 

जब तक हम परिस्थितिओं , व्यक्तिओं , वस्तुओं के प्रति जैसी वो हैं , वैसा ही स्वीकार भाव नहीं रखते ; हम सहज हो ही नहीं सकते। जो सहज और सरल नहीं है वो खुश नहीं रह सकता क्योंकि वो बनावटी है ,उसका व्यवहार आडम्बर-पूर्ण है। सहजता ही तनाव-मुक्त रखती है। तनाव के कारण ही भूलने की बीमारी भी होने लगती है। मस्तिष्क में तनाव ने जगह घेर रखी है तो रचनात्मकता कैसे आयेगी।तनाव-रहित बुद्धि ही नये आइडियाज ,नई खोजें और क्रिएटिव काम कर सकती है। काम में परफेक्शन ला सकती है। ये वैसे ही है जैसे आपको यात्रा पर जाना हो और यदि आपकी हर वस्तु यथास्थान रखी है तो आप सूटकेस खोल कर अपनी वस्तुएँ उठा कर सूटकेस में रखेंगे और चल पड़ेंगे अपने गन्तव्य की ओर , कोई टेन्शन नहीं। मगर अगर सब गड्ड-मड्ड है तो आप घबरायेंगे। दरअसल ऐसा ही हमारे मस्तिष्क का हाल है , बहुत ज्यादा चीजें अपने-अपने खाने में नहीं हैं और हम घबरा रहे हैं। जो स्मृतियाँ आपको नकारात्मकता दे रही हैं  , उन्हें दिल से निकाल दीजिये , भूल जाइये , माफ़ कर दीजिये । लोगों की मजबूरियां होती हैं , बेबसी भी हो सकती है वो अपने अपने दृष्टिकोण से देखते हैं। उनकी भी कड़वी यादें हैं , वो भी भटके हुए हैं। उनके अपने सँस्कार  हैं। इसलिए अपने मन की डेस्क को साफ़-सुथरा रखें ,तभी मन शान्त रहेगा।जहाँ तक परिस्थितियों की बात है वो भी बदलती रहती हैं ; समझदारी से वस्तु-स्थिति को सुलझाइये। खुद को अशान्त रखना बीमारियों को दावत देना है। 

जिसे तुम आज दुश्मन मान कर बैठे हो , वो कल तुम्हारा दोस्त भी हो सकता है। ठीक वैसे ही जैसे जो कल तुम्हारा दोस्त था आज दुश्मन है। स्वीकार भाव से विचारों का मतभेद मिटाया जा सकता है। इस बात पर भरोसा रखो कि आदमी का मन बदलने में देर नहीं लगती। ऐतबार के दरवाजे खुले रखो। ऐतबार ही मन की खुराक है। अपनी ज़ुबान से सुकून ही बाँटो।ज़िन्दगी अनमोल है। कभी भी किसी अनहोनी का सबब न बनो।  इस जन्म को ,अपने होने को सार्थक करें।