सभी लोग छुट्टियों का भरपूर लुत्फ़ उठाते हैं। पहाड़ों की हसीन वादियों का सफर हो या गोवा , महाराष्ट्रा , दक्षिण भारत या देश-विदेश के समुद्री तटों की सैर हो ; हर बार किसी नई जगह को नापने की इच्छा मन में जागती है। तरह-तरह के लज़ीज व्यँजन और रैस्टोरेन्ट्स का स्वाद मन को लुभाता है। पर्यटन को बढ़ावा देना व अपने विभिन्न प्रान्तों की सँस्कृति से परिचय देशाटन के जरिये जरूर सम्भव है।
इंटरनेट ने घूमने-फिरने की सम्भावनाओं को सर्व-सुलभ और सुविधा-जनक कर दिया है। मगर इस सब में छुट्टियों में नानी-दादी के यहाँ जा कर लम्बी छुट्टियां मना कर आना बंद सा होता जा रहा है। छुट्टियों में बुआ , मामा , मासी , चाची , सबके बच्चों का जमावड़ा , साथ मिल-बाँट कर खाना , खेलना , काम करना और चौपाल जमाना , इस सब का मजा ही कुछ और था। दादी नानी के किस्से-कहानियों के साथ कब अच्छे सँस्कार बच्चों के दिल में उतर जाते ; पता ही नहीं चलता था। आज नेट और मोबाइल की दुनिया में डूबे बच्चे आभासी रिश्तों में जी रहे हैं। अपने आस-पास की जीती-जागती दुनिया से मुँह मोड़ कर कई बार हम अपने जरुरी काम भी पूरे नहीं कर पाते। शारीरिक खेल-कूद अब छूटते जा रहे हैं। वो अपनत्व , मजबूत भावनात्मक जुड़ाव ,जीवन मूल्य और प्रगाढ़ रिश्ते जैसे हम खोते जा रहे हैं।
किताबें पढ़ने का वक़्त किसी के पास नहीं है। कोई भी देश अपने कविओं और साहित्यकारों की रचनाओं से समृद्ध माना जाता है।न तो आज किसी के पास पढ़ने का समय है न ही लिखने का। किण्डल , नेट और टी. वी. पर आँखें गढ़ाये बच्चों की आँखों पर चश्मा भी कम उम्र में ही चढ़ जाता है।
गाँवों के चबूतरे अब सूने पड़े हैं। पार्टी करना आज भी सब बच्चों को पसन्द है ; मगर औपचारिकताएं ( फॉर्मेलिटी ) सबको आसानी से मिलने नहीं देतीं। बचपन उस अपनत्व और उन जीवन मूल्यों के बिना अधूरा है। कुल मिला कर हमने खोया ज्यादा और जो पाया वो ज्यादा सुकून नहीं पहुँचा सका।
नई पीढ़ी के बच्चों ने नहीं देखा
धूप के रँगों को साँझ में घुलते हुए
हो गये हैं प्रकृति से दूर
खुद में उलझे हुए
कैसी होती है सुबह
नहीं देखा पूरब में सूरज को उगते हुए
नहीं देखा हवाओं को ,
चिड़ियों सा चहकते हुए
तुम्हारे घर में है भैंस , पेड़ ,
बिल्ली और बच्चे खेलते हुए
नहीं देखा शहरी पीढ़ी ने
जिन्दगी की खनक को गीत में ढलते हुए
नहीं देखा मिट्टी की सनक को ,
रूह में मचलते हुए
नई पीढ़ी के बच्चों ने नहीं देखा
इंटरनेट ने घूमने-फिरने की सम्भावनाओं को सर्व-सुलभ और सुविधा-जनक कर दिया है। मगर इस सब में छुट्टियों में नानी-दादी के यहाँ जा कर लम्बी छुट्टियां मना कर आना बंद सा होता जा रहा है। छुट्टियों में बुआ , मामा , मासी , चाची , सबके बच्चों का जमावड़ा , साथ मिल-बाँट कर खाना , खेलना , काम करना और चौपाल जमाना , इस सब का मजा ही कुछ और था। दादी नानी के किस्से-कहानियों के साथ कब अच्छे सँस्कार बच्चों के दिल में उतर जाते ; पता ही नहीं चलता था। आज नेट और मोबाइल की दुनिया में डूबे बच्चे आभासी रिश्तों में जी रहे हैं। अपने आस-पास की जीती-जागती दुनिया से मुँह मोड़ कर कई बार हम अपने जरुरी काम भी पूरे नहीं कर पाते। शारीरिक खेल-कूद अब छूटते जा रहे हैं। वो अपनत्व , मजबूत भावनात्मक जुड़ाव ,जीवन मूल्य और प्रगाढ़ रिश्ते जैसे हम खोते जा रहे हैं।
किताबें पढ़ने का वक़्त किसी के पास नहीं है। कोई भी देश अपने कविओं और साहित्यकारों की रचनाओं से समृद्ध माना जाता है।न तो आज किसी के पास पढ़ने का समय है न ही लिखने का। किण्डल , नेट और टी. वी. पर आँखें गढ़ाये बच्चों की आँखों पर चश्मा भी कम उम्र में ही चढ़ जाता है।
गाँवों के चबूतरे अब सूने पड़े हैं। पार्टी करना आज भी सब बच्चों को पसन्द है ; मगर औपचारिकताएं ( फॉर्मेलिटी ) सबको आसानी से मिलने नहीं देतीं। बचपन उस अपनत्व और उन जीवन मूल्यों के बिना अधूरा है। कुल मिला कर हमने खोया ज्यादा और जो पाया वो ज्यादा सुकून नहीं पहुँचा सका।
नई पीढ़ी के बच्चों ने नहीं देखा
धूप के रँगों को साँझ में घुलते हुए
हो गये हैं प्रकृति से दूर
खुद में उलझे हुए
कैसी होती है सुबह
नहीं देखा पूरब में सूरज को उगते हुए
नहीं देखा हवाओं को ,
चिड़ियों सा चहकते हुए
तुम्हारे घर में है भैंस , पेड़ ,
बिल्ली और बच्चे खेलते हुए
नहीं देखा शहरी पीढ़ी ने
जिन्दगी की खनक को गीत में ढलते हुए
नहीं देखा मिट्टी की सनक को ,
रूह में मचलते हुए
नई पीढ़ी के बच्चों ने नहीं देखा
बहुत ही खुबसूरत
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा लिखा है.
Raksha Bandhan Shayari