अरे भई ये तो कैमिकल लोचा है । खुदा ने जब इन्सान की मिट्टी को गूंथा होगा , किस अनुपात से रन्ज का रँग मिलाया होगा । आज भी डैस्टिनी के जरिये कभी थोड़ा कम कभी थोड़ा ज्यादा फ्लो करता रहता है हमारी मिटटी में ।कोई बेवजह उदास है , कोई बहुत तीव्र प्रतिक्रियाएँ देता है । हम तो इसे भावनाओं का खेल समझते थे । दिल जिसे हम हथेली में उठाये घूमते हैं , वो न जाने किन किन प्रक्रियाओं से गुजरता है । हमारे वश में हालात तो नहीं , मगर ये इक्वेशन्स तो हमारे बस में होनी चाहिएँ , क्योंकि इनका रिजल्ट कभी बहुत विस्फोटक भी हो सकता है।
और इसके लिए हमें अपना खुदा स्वयं बनना पड़ेगा । जैसे खुदा दूर से सब कुछ देखा करता है , और मुस्कराया करता है ..या फिर जैसे ख़्वाब देखा करते हैं , जागती आँखों से देखना होगा ख़्वाबों को ...
ज़िन्दगी ख़्वाब है ,ख्व्वाब में झूठ क्या और भला सच है क्या .....
किसी ने ज़िन्दगी को ख़्वाब कहा , तो किसी ने ग़मों की किताब कहा । यानि ज़िन्दगी न हुई , चूहे बिल्ली की आँख मिचोली सी हुई । धूप छाया की ठिठोली सी हुई । हम खाम खाँ अपना दिल दाँव पे लगाने को आमादा हैं ।
सब कुछ तो क्षण भँगुर है । आँख खुलते ही परदे से मन्जर बदल जाता है । कभी ज़िन्दगी जुए सी लगती है , जिसके हाथ थोड़े इक्के आ जाएँ , दुनिया सलाम ठोकती हुई सी लगती है । ज़रा सी हार पर दिवाला पिटा सा लगता है । ज़िन्दगी सज़ा भी नहीं , बेशक कज़ा भी नहीं , और बेवफा भी नहीं , और फिर उम्र के त्यौहार में रोना भी तो मना है ।
कौन सा रसायन रगों में दौड़ने लगता है कि दिल दिमाग की बात मानने से इन्कार कर देता है । फिर दिमाग पंगु हो जाता है , दिल अपना ही दुश्मन बना ,बिच्छू की तरह अपनी ही पूँछ खाने लग जाता है । हाँ भई , डाक्टर की भाषा में कुछ हार्मोन्ज ऐसे सिकरीट होने शुरू हो जाते हैं जो आदमी को गहरी उदासी में धकेल देते हैं । हम इलाज में लग जाते हैं , मगर कारण की तरफ ध्यान नहीं देते । मिट्टी लीप लीप कर सतह को साफ़ दिखाते रहते हैं , मगर अन्दर इक ज्वालामुखी हलचल में रहता है, और मौका पाते ही विस्फोट कर सब तहस नहस कर डालता है ।
किशोरावस्था आते आते हार्मोन्ज अपना खेल दिखाने लगते हैं । अपनी वय के लोग , विपरीत सेक्स में आकर्षण जो तकरीबन कम ज्यादा सारी उम्र बना रहता है । धीरे धीरे माँ के आँचल से लगाव कम हो जाता है । जहाँ जितना जुड़ाव होता है , चाहे वो रोजगार से सम्बंधित हो या रिश्तों से ,उम्मीद भी ज्यादा होती है , फिर फ्रस्ट्रेशन भी ज्यादा होता है । परिस्थितियाँ मय इन्सानों के इस कैमिकल लोचे को ट्रिगर करते रहते हैं ।
इस कैमीकल लोचे की शुरुआत कहीं हमारे भीतर से ही हुई होती है , इसको परवरिश भी हमारे ही मन ने दी हुई होती है । एक हद तक हम अपनी किस्मत खुद लिखते हैं । हालात कितने भी बदतर क्यों न हों , अपने अन्दर बैठे खुदा के नूर को हमें पहचानना होगा । दुनिया में बहुत कुछ होता है पर क्या खुदा अपने बन्दों से मुँह मोड़ लेता है । प्रकृति की अवहेलना नहीं कर सकते , प्रकृति के साथ झूमना साखिये ।
और इसके लिए हमें अपना खुदा स्वयं बनना पड़ेगा । जैसे खुदा दूर से सब कुछ देखा करता है , और मुस्कराया करता है ..या फिर जैसे ख़्वाब देखा करते हैं , जागती आँखों से देखना होगा ख़्वाबों को ...
ज़िन्दगी ख़्वाब है ,ख्व्वाब में झूठ क्या और भला सच है क्या .....
किसी ने ज़िन्दगी को ख़्वाब कहा , तो किसी ने ग़मों की किताब कहा । यानि ज़िन्दगी न हुई , चूहे बिल्ली की आँख मिचोली सी हुई । धूप छाया की ठिठोली सी हुई । हम खाम खाँ अपना दिल दाँव पे लगाने को आमादा हैं ।
सब कुछ तो क्षण भँगुर है । आँख खुलते ही परदे से मन्जर बदल जाता है । कभी ज़िन्दगी जुए सी लगती है , जिसके हाथ थोड़े इक्के आ जाएँ , दुनिया सलाम ठोकती हुई सी लगती है । ज़रा सी हार पर दिवाला पिटा सा लगता है । ज़िन्दगी सज़ा भी नहीं , बेशक कज़ा भी नहीं , और बेवफा भी नहीं , और फिर उम्र के त्यौहार में रोना भी तो मना है ।
कौन सा रसायन रगों में दौड़ने लगता है कि दिल दिमाग की बात मानने से इन्कार कर देता है । फिर दिमाग पंगु हो जाता है , दिल अपना ही दुश्मन बना ,बिच्छू की तरह अपनी ही पूँछ खाने लग जाता है । हाँ भई , डाक्टर की भाषा में कुछ हार्मोन्ज ऐसे सिकरीट होने शुरू हो जाते हैं जो आदमी को गहरी उदासी में धकेल देते हैं । हम इलाज में लग जाते हैं , मगर कारण की तरफ ध्यान नहीं देते । मिट्टी लीप लीप कर सतह को साफ़ दिखाते रहते हैं , मगर अन्दर इक ज्वालामुखी हलचल में रहता है, और मौका पाते ही विस्फोट कर सब तहस नहस कर डालता है ।
किशोरावस्था आते आते हार्मोन्ज अपना खेल दिखाने लगते हैं । अपनी वय के लोग , विपरीत सेक्स में आकर्षण जो तकरीबन कम ज्यादा सारी उम्र बना रहता है । धीरे धीरे माँ के आँचल से लगाव कम हो जाता है । जहाँ जितना जुड़ाव होता है , चाहे वो रोजगार से सम्बंधित हो या रिश्तों से ,उम्मीद भी ज्यादा होती है , फिर फ्रस्ट्रेशन भी ज्यादा होता है । परिस्थितियाँ मय इन्सानों के इस कैमिकल लोचे को ट्रिगर करते रहते हैं ।
इस कैमीकल लोचे की शुरुआत कहीं हमारे भीतर से ही हुई होती है , इसको परवरिश भी हमारे ही मन ने दी हुई होती है । एक हद तक हम अपनी किस्मत खुद लिखते हैं । हालात कितने भी बदतर क्यों न हों , अपने अन्दर बैठे खुदा के नूर को हमें पहचानना होगा । दुनिया में बहुत कुछ होता है पर क्या खुदा अपने बन्दों से मुँह मोड़ लेता है । प्रकृति की अवहेलना नहीं कर सकते , प्रकृति के साथ झूमना साखिये ।