शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

रैगिंग और चाचा नेहरु के फूल



कल टेलीविजन में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा एक नए छात्र की रैगिंग का दृश्य देखा शुरुआती दौर में रैगिंग का असली उद्देश्य था , नए छात्रों का पुराने छात्रों से महा-विद्यालय के वातावरण से परिचय मेलजोल ताकि वो खुद को अपरिचित माहौल में भी सहज महसूस कर सकें पता नहीं कब ये स्वस्थ्य दृष्टिकोण हमारी नई फसल के अमानवीय चेहरे में बदल गया गाँव-कस्बों से आने वाले छात्र , माँ-बाप की छात्र-छाया से स्कूल के सहपाठियों से विलग होने का दंश झेलने के साथ-साथ नए अपरिचित वातावरण में खुद को ढालने की कोशिश , सुनहरे भविष्य की कल्पना की डोरी थाम जब महाविद्यालय में प्रवेश करते हैं , तो उन्हें पता नहीं होता कि रैगिंग के ऐसे वीभत्स चेहरे को भी उन्हें झेलना पड़ेगा कच्ची उम्र कच्चे बर्तन की तरह होती है , ज्यादा जोर से ठोकने पर बर्तन टूट भी सकता है बचपन की अच्छी या बुरी घटनाएँ-दुर्घटनाएँ सारी उम्र जेहन में साथ चलतीं हैं ; प्रतिक्रियाएँ व्यक्तित्व निर्माण में सहायक होती हैं प्राण-शक्ति का टूटना किस किनारे पर ला खडा करेगा ?


सीनिअर छात्र खुद भी इस प्रक्रिया से गुजरे होते हैं , तो क्या वो अपना दबा हुआ प्रतिशोध नए छात्रों से ले रहे होते हैं इसे कुँठा कहें , मतिभ्रम कहें या फिर पर-पीड़ा में आनंद लेने वाली वृत्ति कहें ; मनोवैज्ञानिक तो इन्हें बीमार करार देंगे जो काम विद्यालय प्रशासन से छिपा कर किया जाए वो निसंदेह अपराध की श्रेणी में आएगा ढिठाई की हद देखिये जब उसी का एम.एम.एस.बना कर पूरे विद्यालय में सर्कुलेट किया जाता है जैसे बहादुरी की मिसाल कायम की हो । हमारी यूथ भटक गयी है , जब अपने ही जैसे जीवन को हाड़-माँस का पुतला समझ लिया जाता है , इसे और क्या कहेंगे , मेरा खून खून है और उसका खून पानी ? प्रशासन अगर इन्हें रेस्टिकेट भी करता है तो इनका भविष्य भी दाँव पर लग जाता है । अनुशासन-हीनता , उद्दंडता का जो पाठ इन्होंने चोरी-छिपे रैगिंग करने के दौरान सीखा अब वो खुले आम अभ्यास में लायेंगे । डर से अनुशासित रहा जाता है और प्यार से जिन्दगी चलती है । ऐसी दुर्घटनायें जीवन में हमेशा के लिये अंकित हो जाती हैं ; कैक्टस बो कर ये अपनी जिन्दगी को रेगिस्तान बना लेंगे और आत्मा तक लहुलुहान होते रहेंगे ।
आध्यात्मिकता ,आत्मिक शांति के लिये प्रसिद्द बापू के इस देश में काँटों की ये नई फसल तैयार होती नजर आ रही है । फ्रेशर्ज की जगह एक दिन उन्हीं के छोटे भाई-बहन या बच्चे भी खड़े हो सकते हैं , उनका शिकार बनना कैसा लगेगा , ये सोच कर नहीं देखा होगा इस नई फसल ने । अपनी ही शक्तियों को ये भूल गए हैं ...किसी जीवन को उठा न सकें तो उसके भविष्य से खिलवाड़ भी न करें ...वो बन सकता था खुदा , अपनी कीमत उसने खुद ही , कमतर आँक ली होगी ।
बापू के इस देश में
चाचा के नेहरु के फूल सरीखे
काँटों में तब्दील हुए
पंगु हुई है नैतिकता
नस-नस से हैं बीमार हुए
भूल गए हैं अपना दम
किस साजिश के हैं शिकार हुए
सपने सारे बेमायने हैं
जो खुशबू से न सराबोर हुए
मत छीनो धरती क़दमों से
आसमाँ भी न यूँ मेहरबान हुए

बुधवार, 8 सितंबर 2010

बातों में नमी रखना


जो शान्त भाव से सहन करता है , वही गंभीर रूप से आहत होता है ।
_रवीन्द्र नाथ टैगोर


भला क्यों , शायद इसलिए कि वो प्रतिक्रिया नहीं देता , उसका गुस्सा उसके अन्दर ही उबाल मारता रहता है , उसे कोई रास्ता नहीं मिलताइसलिए भी कि वो मूक हो कर ( ऊपरी तौर पर ) ध्यान से वस्तुस्थिति को पढ़ रहा होता हैअगर मन शान्त होता तो आहत नहीं होता ; और ये टूटन कहीं कहीं तो प्रतिक्रिया स्वरूप जरूर निकलेगीमन की संवेदन-शीलता को हमेशा सृजन का रास्ता दिखाना चाहिएहर विषमता को सबक की तरह लेकर , उस से निबटने में अपना पुरुषार्थ करना चाहिएकहते हैं चोर से नहीं चोरी से घृणा करोचोर को सुधारने के लिये उसके दिल को बदलना होगा , जहाँ चोरी करने का विचार पैदा हुआउसके परिस्थिति जन्य कारणों को खुली आँख से देख कर शायद हम उसे माफ़ कर सकें , और खुद आहत होने से बच पायें


हमारी संवेदन-शीलता किस कदर भटक गई है कि आदमी अपने ही बच्चों तक को नहीं बख्शताकल अखबार में पढ़ा कि एक पिता ने अपने तीन-चार साल के बच्चे को इतना पीटा कि वो मर गया ; सिर्फ इसलिए कि बच्चे ने उसके मोबाइल पर पानी डाल दिया थामोबाइल शायद बच्चे से ज्यादा जरुरी था ! आज भौतिकता नैतिकता से ज्यादा आगे हो गई है , इसी लिये मानवीय मूल्य गिर गए हैंहमें बच्चों से कहना चाहिए कि पैसे को हमेशा रिश्तों से सेकेंडरी रक्खें ; क्योंकि पैसा तो हमारी किस्मत का कोई हमसे छीन ही नहीं सकता और रिश्ते हमारी कमाई हैं , बना सकें तो बिगाड़ें भी मतजब दूसरों को अपना समझेंगे तभी माफ़ भी कर सकेंगे और तभी अंतर्मन भी स्वस्थ्य रहेगा


बातों में नमी रखना
बातों में नमी रखना
आहों में दुआ रखना
तेरे मेरे चलने को
इक ऐसा जहाँ रखना


जूते तो मखमली हैं
चुभ जायेंगे फ़िर काँटें
जो अपने ही बोए हैं
छाले न पड़ जाएँ
चलने को जँमीं रखना


चलना है धरती पर
हो जायेगी मूक जुबाँ
मुस्कानों पे फूल लगा
पँखों में दम भरके
सबकी ही जगह रखना


बच्चों सा निश्छल हो
पुकारों में वो चाहत हो
आसमानों में बैठा जो
उतरने को आतुर हो
अन्तस को सजा रखना