आप शक्तिमान आत्मा हैं । आत्मा , मन बुद्धि से अलग होती है , आत्मा शान्त सत्य चित्त आनँद स्वरूप होती है , इसी लिये उसे तनाव रहित रहना अच्छा लगता है , दुःख उसे भारी कर देते हैं । भावनायें मन का काम है और उनका नियंत्रण बुद्धि के जिम्मे है । सिर्फ बुद्धि से काम लें तो यान्त्रिक बन जायेंगे और सिर्फ मन से चलेंगे तो भी काम नहीं चलेगा , इसलिए मन बुद्धि का संतुलन बहुत आवश्यक है । विवेक और प्रेम से भरा मन आपको मर्यादा के साथ साथ आत्मा की राह पर चलना सिखाएगा , जिससे अंतर्मन तनाव रहित रहेगा ।
परिस्थितियों से मन हिलता है , जिसे हम गहरे आत्मा तक उतार लेते हैं , जबकि दुख तो बाहर है । शरीर को भी तकलीफ है तो बाहर है न कि आत्मा को है , समय के साथ ख़त्म हो जाने वाली है । सुख-दुख का संयोग वियोग मौसम की तरह है । फिर सर्वशक्तिमान की यही मर्जी है तो हम उसे सर आँखों पर लें , उसमें जरुर कोई भेद छुपा है ...परीक्षा , सबक या फिर कर्म कट रहे हैं । अब मन ये कैसे मान ले कि दुख अच्छा है ! स्वीकार तो करना ही पड़ेगा , हँस कर करेंगे तो उसे काटना आसान हो जाएगा । दुख को जैसे ही स्वीकार कर लिया जाता है , है तो है , ये सोचते ही दुख की तीव्रता कम हो जाती है । परिवर्तन तो आयेंगे ही , क्योंकि ये प्रकृति का नियम है , वरना जीवन नीरस हो जायेगा , उनसे डरना कैसा ! उनमें धैर्य , संतोष , विवेक बुद्धि , योग्यता की परीक्षा होगी और जीवनी शक्ति होगी आपका उपहार ।
दंभ और आत्मग्लानि दोनों से हटना होगा । आत्मग्लानि क्यों ? आत्मा तो नूर से भरी हुई है । अगर आप शुभ शुभ सोचते हैं , चेहरा दमकने लगता है । हमारी अभी की सोच अगले पलों की किस्मत बन जाती है , वैसा ही हम महसूस करने लग जाते हैं , एक विचार एक श्रृंखला लेकर आता है कितने ही विचारों की । जब हमारे विचार इतना मायने रखते हैं तो आत्मा कितनी बलशाली हुई । दंभ से भी बचना है , अभिमान करना है तो सर्व होने का करें । इसे एक वृहद् रूप दें ...सर्वशक्तिमान से अलग होकर आई हुई मेरी आत्मा और सारी आत्माएँ , हमारा गहरा रिश्ता है , प्रेम का ...तो भय कैसा और फर्क कैसा !
अब दूसरे के व्यवहार के पीछे कारण देख सकने वाली दृष्टि भी आप पा लेंगे । न किसी से नाराज होंगे न तनाव होगा । अपने आप को देखें कि आप क्या सोच रहे हैं ...मन को भारी करने वाले विचार , दूसरों के साथ द्वेष वाले विचार , कचरे से कम नहीं हैं , फ़ौरन अपने आप को समझाएं ..ये मेरा ही रूप है , कैसा विद्वेष ? उसको समझाने के लिये हमारी सीमाएँ हैं मगर हम अपनी नकेल तो अपने हाथ में रखें । हमारी भरसक कोशिश रहे कि जो उसके हित में है हम करें । कीर्ति की चाह भी न करें , क्योंकि ये चाह फिर दुख को जन्म दे सकती है । मन को मोड़ मोड़ कर सही रास्ते पर लायें । अब आप अपनी भावनाओं को टूट जाने की कगार पर ले कर ही नहीं जायेंगे तो अवसाद की क्या मजाल जो आपके पास भी फटक सके ।
जीवन तो प्रसाद रूप है , खुश रहें और खुशियाँ ही बाँटें । जब प्रकृति की मर्जी से लय मिला लेते हैं तभी इस गुण का अनुभव कर सकते हैं । जब हम जान बूझ कर कुछ गलत नहीं करेंगे , न ही सोचेंगे , अंतर्मन में ये विश्वास रखेंगे कि परम पिता हर हाल में हमारे साथ है तो न तो अकेलेपन का डर लगेगा और न ही किसी विषम परिस्थिति के नकारात्मक प्रभाव का ।
जब आप भाव बदल लेंगे तो कोई नकारात्मक भाव आप पर असर ही नहीं करेगा । आप पायेंगे कि जीवन आसान हो गया है । हर दिन नया दिन है , मुस्करा कर स्वागत कीजिये । अध्यात्म जीवन का मजबूत आधार स्तम्भ है । मन बुद्धि को नियंत्रित करते हुए कर्म के साथ जुड़िये । बेशक बाहरी आँखें आपको बार बार विचलित करेंगी , हर बार मन को मोड़ मोड़ कर अपने असली स्वरूप में लौट आयेंगे तो जीवन गुजरता हुआ नाटक सा दिखेगा । हमारे विचार ही तो हम हैं । अंतर्मन और कर्म का संतुलन ही तो है संतुलित व्यक्तित्व ।
खुद प्रेम का रूप हैं और बाहर तलाश रहे हैं , कितनों का मन हम उठा सकते हैं , जीवनी शक्ति से भर सकते हैं ; इसलिए प्रेम छलकाएं , तभी भरे होने का अहसास होगा । हाँ , याद रखें प्रेम करने में आपको एक जगह अटक कर नहीं रहना है , लें दें और आगे बढ़ चलें । आपका सफ़र , आपकी पटरी तय है , आपको तो सिर्फ मर्यादा सहित कुशलता से अपना काम करते चलना है ।