अमर उजाला के एक ' रूपायन ' अँक में एक लेख छपा था ' दुनिया एक बाजार , ऐसे चुने राजकुमार ' , जिसमें इस मुश्किल को हल करने में शापिंग के फार्मूले को इस्तेमाल करने का सुझाव दिया गया था | सचमुच बाजार इतना छा गया है कि आदमी एक ' उत्पाद ' ही बन कर रह गया है | यह बात तो ठीक है कि वर चुनते समय आपको अपनी प्राथमिकताएँ पहले तय करनी पड़ती हैं ; उनमें किस बात पर कितना फेर-बदल किया जा सकता है , ये भी खुद पर ही निर्भर करता है | आजकल कितनी ही वेब साइट्स व अखबार इस मदद के लिए उपलब्ध हैं या कहिये कि पैसा कमाने का जरिया भी बन गयी हैं | हर बात का बाजारीकरण होता जा रहा है |
जीवन साथी चुनने जैसे नाजुक ख्याल को शापिंग से जोड़ कर देखना ! , सचमुच क्या पुरुष वर्ग नाराज नहीं हुआ ? क्या इतना आसान है , कइयों से मिलना , मशीनी ढँग से खुद को भी एक वस्तु समझ लेना ? जाने अन्जाने कितने ही दिल टूटते होंगे , क्योंकि शादी तो एक से ही होगी | विज्ञापन और पँच लाइंस बेशक मदद कर रही हैं , पर आप पायेंगे कि बार-बार वही वही विज्ञापन आ रहे हैं , क्योंकि जहाँ रिश्तों के बहुत सारे ऑप्शन आ जाते हैं , वहीं आदमी एक जगह भी सैटल नहीं कर पाता | सबसे बड़ा कारण होता है भावनात्मक जुड़ाव ( इमोशनल बोन्डिंग ) का अभाव | न तो कोई मध्यस्तता कर रहा होता है जो आपको दूसरे पक्ष की विशेषताएँ बता सके और न ही आप किसी बात में पहल करना चाहते हैं | शुरुआती दौर चलता है फिर सब टायं-टायं फिस्स | बात उम्र भर की है , विशवास जीतना कठिन | सभी की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा हैं , कोई भी अपेक्षा से कम पर समझौता नहीं करना चाहता | और हम पाते हैं कि जहाँ से चले थे , खड़े वहीं पर हैं |
हर नजर है तूफ़ान समेटे हुए
हर दिल है आसमान लपेटे हुए
चलते हैं सब मगर
पहुँचता कोई कहीं नहीं
विष्वास है खोया हुआ
रिश्तों में अब नमी नहीं
नजर तो उठती हर तरफ़
भीड़ में चेहरों की कमी नहीं
हाथ तो बढ़ाते हैं
विष्वास साथ लाते नहीं
हर नजर है तूफ़ान समेटे हुए
हर दिल है आसमान लपेटे हुए
अगली बार जब कोई भा जाए तो अगर मगर किये बिना वक़्त को थाम लेना , जो हो सके तो कम से कम दिल तोड़ना , उम्र को यूँ ही गलाना अच्छा नहीं |
शनिवार, 16 जनवरी 2010
पहुँचता कोई कहीं नहीं
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