शाहिद साहब ,
आपने तारीफ की , अच्छा लगा , सबका लेखन मौलिक है , जैसा आप लिखते हैं वैसा मैं नहीं लिख सकती , इसलिए तुलना मत करिए , मैं जानती हूँ खुद को कमतर कह लेना आसान नहीं है | जो काम पीठ पर थपकियाँ करतीं हैं , सराहना करती है , वो काम आलोचना नहीं कर सकती ; हालाँकि स्वस्थ्य आलोचना चमकाने का काम करती है अगर हम स्वस्थ्य मानसिकता रखते हैं तो | खलिश माने चुभन ही होता है न ? ' वो खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता ' , अगर खलिश हमें सृजन , सकारात्मकता या बेहतरी की ओर ले जाए तो वो चुभन बनाये रखनी चाहिए , सार्थक है | हम सब जानते हैं कि हमारे बचपन की मामूली से मामूली घटना भी जिसने हमें भाव-विह्वल किया , हमारे ज़हन में आज भी जिन्दा है , उसका हम पर कितना असर है ! इसी तरह हमारी वाणी , हमारे शब्द , यहाँ तक कि हमारे दिल में पैदा होने वाले भाव , सबका असर होता है | वो टूटन , वो बिखरन, वो धमक दूर तलक जायेगी | इसलिए क्यों न पहले अपने मन के भाव को ही सँभाल लें ; जो कुछ ऐसा न रचे , न कहे जो अपने लिए या समाज के लिए अहितकर हो |
आपने ग़ज़ल लिखी , मैंने इक नज्म लिखी , आपने टिप्पणी दी , मैंने बदले में इक लेख लिखा | देखिये , शब्दों की गूँज कितनी होती है | चुप भी जब गूँजा करती है तो शब्दों से परे होती है | आपका हमारा काम तो उसे बेनकाब करना है |
न गम किया , न गुमान किया
यही तरीका है जीने का , जिसने आराम दिया
आपकी टिप्पणी ने दो मुठ्ठी खून तो मेरी रगों में भी उँडेला ही !
आपकी टिप्पणी के उत्तरमें मैंने एक लेख ही लिख डाला है |
शारदा अरोरा
शब्दों की गूँज ...
जवाब देंहटाएंसच में .... इन शब्दों की गूँज बहुत दूर तक जाती है ...........
"चुप भी जब गूँजा करती है तो शब्दों से परे होती है"
जवाब देंहटाएंसाहिद साहब के साथ-साथ हम सभी को भी आपने कितने सही तरीके/सलीके से कितनी बड़ी बात कह दी.
पूरी बात तो मुझे नही पता मै दो दिन नेट से दूर रही मगर शब्दों की गूँज तो हमेशा ही दूर तक जाती है। बहुत अच्छा लगा आपका ये आलेख शाहिद जी को धन्यवाद दें या आपको?
जवाब देंहटाएंबहुत खूब!
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