सड़क पर गुजरते हुए कुछ अठारह-बीस साल के लड़कों को बातें करते सुना। वो अपनी भाषा में गालियों का प्रयोग बड़ी हेकड़ी के साथ कर रहे थे ; जैसे ये उनकी शान बढ़ा रही हों। कम पढ़े-लिखे लोगों के साथ-साथ सभ्य बुद्धि-जीवी कहे जाने वाले लोग भी कम उद्दण्ड नहीं हैं। हमारे फिल्म-जगत ने ऐसे किरदारों को भी पर्दे पर उतारा है। व्याकरण की त्रुटियाँ या भाषा की समृद्धि की बात तो दूर रही ; गालिओं का इस तरह धड़ल्ले से प्रयोग समाज को क्या सन्देश दे रहा है। भाषा का गिरता स्तर चिन्ता का विषय है।
आये दिन अखबारों में किशोरों की बढ़ती नशे की लत के बारे में , छोटी-छोटी बात पर तू-तड़ाका करने पर उतारू , हत्या-आत्म-हत्या करने तक से बाज नहीं आने के बारे में ख़बरें छपती हैं। हमारे नैतिक मूल्यों का गिरना और दिशा भ्रमित होना ही इन सारी समस्याओं का कारण है। आज हर कोई साम ,दाम, दण्ड ,भेद किसी भी जोर पर सबसे ऊपर खड़ा होना चाहता है। बिना मेहनत किये जीवन के अर्थ ही गलत लगा लिए गए हैं।व्यक्ति को पता ही नहीं चलता कि उसकी कुण्ठायें उसे कहाँ ला के छोड़ने वाली हैं। ख़ुशी क्या ज्यादा पैसा पाने से मिल सकती है ? पार्टी करना , मौज मस्ती करना ही जीवन का ध्येय नहीं है। मौज-मस्ती में भी आप हर किसी का ख़्याल नहीं रख सकते , और एक जरा सा खलल और सब मस्ती गुड़-गोबर हो जाती है।
ये मायने नहीं रखता कि आपने ज़िन्दगी से क्या पाया ,कितना पाया या कितनी लम्बी ज़िन्दगी जी ; वरन ये मायने रखता है कि आपने कैसी ज़िन्दगी जी। भाषा ज्ञान को अगर बाहरी आडम्बर मान भी लें , तब भी आन्तरिक गुणों को अभिव्यक्ति तो भाषा के माध्यम से ही मिलती है। कहते हैं कि किसी व्यक्ति की मात्र-भाषा या असली स्वभाव के बारे में जानना हो तो उसे थोड़ा सा क्रोध दिलाओ और फिर उसकी प्रतिक्रिया देखो। अगर वो गालिओं में पला-बढ़ा है तो वो अपनी भाषा में गालिओं की बौछार कर देगा। ये मत भूलें कि स्कूल से भी पहले की पाठशाला घर होता है। घर व आस-पास का वातावरण ताउम्र प्रभावी रहता है। जो व्यवहार हम दूसरों से अपने लिये नहीं चाहते , वो व्यवहार हम दूसरों के साथ न करें।
धरती पर जीव-जन्तुओं में मनुष्य ही अकेला ऐसा प्राणी है , जो बुद्धि-जीवी है। सदियों से मनुष्य ने लम्बी विकास की राह तय की है। सभ्य-सुसंस्कृत समाज ने अपने माप-दण्ड तय किये हैं। उन्हें निभाते हुए हमें आगे बढ़ना है। भाषा शिक्षा हमारा मौलिक अधिकार भी है और व्यक्तित्व का सच्चा श्रृंगार भी है।
शिक्षा सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान नहीं है ; हमारे अन्दर विवेक , उत्तर-दायित्वों , कर्तव्यों ,आचार-व्यवहार के प्रति जागरूकता पैदा करना भी शिक्षा का ध्येय है। मनुष्यता के मौलिक गुणों के विकास में शिक्षा सोने पे सुहागे काम करती है। इसमें सन्देह नहीं कि भाषा हमारे जीवन मूल्यों का आईना है। शिक्षा , सँस्कार , ज्ञान के सामने ही दुनिया सिर झुकाती है।
आये दिन अखबारों में किशोरों की बढ़ती नशे की लत के बारे में , छोटी-छोटी बात पर तू-तड़ाका करने पर उतारू , हत्या-आत्म-हत्या करने तक से बाज नहीं आने के बारे में ख़बरें छपती हैं। हमारे नैतिक मूल्यों का गिरना और दिशा भ्रमित होना ही इन सारी समस्याओं का कारण है। आज हर कोई साम ,दाम, दण्ड ,भेद किसी भी जोर पर सबसे ऊपर खड़ा होना चाहता है। बिना मेहनत किये जीवन के अर्थ ही गलत लगा लिए गए हैं।व्यक्ति को पता ही नहीं चलता कि उसकी कुण्ठायें उसे कहाँ ला के छोड़ने वाली हैं। ख़ुशी क्या ज्यादा पैसा पाने से मिल सकती है ? पार्टी करना , मौज मस्ती करना ही जीवन का ध्येय नहीं है। मौज-मस्ती में भी आप हर किसी का ख़्याल नहीं रख सकते , और एक जरा सा खलल और सब मस्ती गुड़-गोबर हो जाती है।
ये मायने नहीं रखता कि आपने ज़िन्दगी से क्या पाया ,कितना पाया या कितनी लम्बी ज़िन्दगी जी ; वरन ये मायने रखता है कि आपने कैसी ज़िन्दगी जी। भाषा ज्ञान को अगर बाहरी आडम्बर मान भी लें , तब भी आन्तरिक गुणों को अभिव्यक्ति तो भाषा के माध्यम से ही मिलती है। कहते हैं कि किसी व्यक्ति की मात्र-भाषा या असली स्वभाव के बारे में जानना हो तो उसे थोड़ा सा क्रोध दिलाओ और फिर उसकी प्रतिक्रिया देखो। अगर वो गालिओं में पला-बढ़ा है तो वो अपनी भाषा में गालिओं की बौछार कर देगा। ये मत भूलें कि स्कूल से भी पहले की पाठशाला घर होता है। घर व आस-पास का वातावरण ताउम्र प्रभावी रहता है। जो व्यवहार हम दूसरों से अपने लिये नहीं चाहते , वो व्यवहार हम दूसरों के साथ न करें।
धरती पर जीव-जन्तुओं में मनुष्य ही अकेला ऐसा प्राणी है , जो बुद्धि-जीवी है। सदियों से मनुष्य ने लम्बी विकास की राह तय की है। सभ्य-सुसंस्कृत समाज ने अपने माप-दण्ड तय किये हैं। उन्हें निभाते हुए हमें आगे बढ़ना है। भाषा शिक्षा हमारा मौलिक अधिकार भी है और व्यक्तित्व का सच्चा श्रृंगार भी है।
शिक्षा सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान नहीं है ; हमारे अन्दर विवेक , उत्तर-दायित्वों , कर्तव्यों ,आचार-व्यवहार के प्रति जागरूकता पैदा करना भी शिक्षा का ध्येय है। मनुष्यता के मौलिक गुणों के विकास में शिक्षा सोने पे सुहागे काम करती है। इसमें सन्देह नहीं कि भाषा हमारे जीवन मूल्यों का आईना है। शिक्षा , सँस्कार , ज्ञान के सामने ही दुनिया सिर झुकाती है।
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (25.04.2014) को "चल रास्ते बदल लें " (चर्चा अंक-1593)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंआपका अवलोकन एकदम सटीक है .... सच में यह चिंता का विषय है
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन कितने बदल गए हम - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसभ्य भाषा ही हमारे संस्कारों का प्रतीक है। आपका लेख रोचक एवं प्रेरक दोनो है।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद...आशा जी
हटाएंआप सबको बहुत बहुत धन्यवाद। … कई बार ऐसा आचरण मन को कचोटता था , फिर एक दिन कलम ने लिख ही डाला ..
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