मंगलवार, 6 नवंबर 2012

आधार

किसी भी दुख का इलाज प्यार हो सकता है  मगर शरीर से या रिश्ते से प्यार तो भुलावा है ...छलावा है । जी तो  आप बाहरी आधार पर ही रहे हो , जो कभी भी आप के हाथ से फिसल सकता है । इसलिए ऐसा आधार जो अपने क़दमों चलना सिखाये , अभ्यास में लाना जरुरी है । ये आधार है अपनी चेतना के अनुभव का  जैसे ही आप महसूस करेंगे कि शरीर मन बुद्धि के सारे क्रिया-कलापों को  चलाने वाली आत्मा आप ही हैं , सब कुछ आप के नियंत्रण में हो सकता है । सारी आत्माएँ अपने अपने रोल के अनुसार या कहिये हमारे पिछले लेने देने के हिसाब के अनुसार हमारे समीप आतीं हैं , अपना अपना रोल अदा करतीं हैं ; इस सब में हमें बिना विचलित हुए अपना पार्ट बखूबी अदा करना है ...हाँ और काँटे नहीं बोने हैं यानि और कर्मों की खेती नहीं करनी है । जहाँ आपने बन कर बात की या श्रेय लेने की कोशिश की , वहीं अहं का पुट आ जायेगा , ये छाप मन पर उतर जायेगी , दूसरा आहत हो जायेगा और फिर कर्मों का दूसरा सिलसिला शुरू हो जाएगा । 

जिस तरह कहते हैं कि  बाँटा हुआ सुख दुगना हो जाता है और बाँटा हुआ दुख आधा रह जाता है ; बिलकुल उसी तरह जब मन दुःख बुद्धि के साथ बाँट लेता है तो शरीर का दुःख भी आधा रह जाता है । अब मन को खुद को समझाना आ जाता है ; मन शरीर और आत्मा में भेद करना सीख जाता है । शरीर के दुःख को , कमियों को , रिश्ते-नाते , स्थूल सूक्ष्म , मन के तल पर उतरते कैसे भी दुःख को हल्का करते हुए मन तक नहीं पहुँचने देता । ये आसान नहीं होगा ,मन बार बार बाहरी स्थूल दृष्टि में उलझेगा क्योंकि मन ने शरीर धारण किया है तो स्वाभाविक तौर पर इन चक्षुओं से से वही दिखता है । सूक्ष्म दृष्टि  बार बार मन को अटकने से बचा लायेगी । इस तरह अन्तर्दृष्टि का अभ्यास आत्मा के अनुभव ( सोल कौन्श्य्स नेस ) में लौटा लाएगा । धीरे धीरे डिटैचमेंट का अनुभव होगा । मन पर किसी के लिए भी मैल का दाग मत रखो । ये कैसी विडम्बना है कि गैरों को तो हम फिर भी माफ़ कर देते हैं , मगर बहुत अपनों से बहुत उम्मीद रखते हुए लगातार एक शीत युद्ध पाले रखते हैं । वो आत्मा भी अपना रोल अदा कर रही है और यहीं तो हमारी आत्मा का अभ्यास काम में आना है , या कहो यहीं तो हमारी परीक्षा है । 

ऐसा नहीं है कि शरीर से आत्मा की विरक्ति का अनुभव आपको सिर्फ दुखों से मुक्त करता हो और आनन्द से वंचित कर देता हो । जब आप एक सूक्ष्म दृष्टि जिसमें सभी जीव भाव यानि आत्मा के स्वरूप में दिखते हैं तो सभी आप सामान दिखते हैं , तो ' न काहू से दोस्ती , न काहू से बैर ' वाली बात हो जाती है । सब की ख़ुशी अपनी ख़ुशी । आप एक अजब सात्विक आनन्द से भर उठते हो ; और ये वो ख़ुशी है जो बिरलों को प्राप्त होती है । इस तरह जीते जी मुक्ति का अनुभव होता है , न तो दुक्खों ने आत्मा पर बोझ डाला हुआ होता है , न ही आत्मा अपने असली स्वरूप सत चित आनन्द से वन्चित होती है । इस तरह आप अपनी जिम्मेदारियाँ ज्यादा अच्छी तरह व ज्यादा सन्तुलित रहते हुए निभा सकेंगे । मनुष्य जन्म अनमोल है इसलिए इसकी हिफाजत करना हमारा धर्म है , मगर ये तभी सम्भव है जब हम अपनी आत्मा की भी सम्भाल करें । हमारे जन्म का एक उद्देश्य ये भी है कि हम अपने स्वरूप को पहचान लें । 

कहते हैं सपना न हो तो उड़ान भी नहीं होती । आँखों में सपना गालों पर रँगत तो दे सकता है , मगर इस रँगत को स्थायित्व नहीं दे सकता । टूटे हुए सपनों की किरचें जीवन भर बटोरते हुए आत्मा लहू लुहान ही रहती है । आदमी आसानी से जब इस रास्ते पर नहीं आता तब यही ताप उसे इस दरवाजे पर धकेल जाते हैं । निराशा और वैराग्य में बड़ा अन्तर है  । निराशा पल पल डूबते हुए मन को वहीँ घुमाए रखती है , पीछे छूटा हुआ भी अपने पास लगातार ज़िन्दा रखती है ; वैराग्य ' रात गई बात गई ' की तरह सब भूल कर एक परम आनन्द में डूबा रहता है ; इसका ये मतलब कदापि नहीं है कि सब छोड़ दिया है ...बल्कि ये तो वो चाभी है जिससे दुख के बड़े बड़े जंग लगे ताले भी खुल जाते हैं ...तो कुछ ऐसा लिखें कि खुदा को अपनी लिखी हुई इबारत भी दुबारा लिखनी पड़े । 


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