प्रिय बेटी ,
इस बार जब तुम कुछ दिन घर बिता कर वापिस जा रहीं थीं , मन बार बार भर आ रहा था । जब तुम मुझे कम्बल ओढ़ातीं थीं , मुझे लेटे रहने की हिदायतें देतीं थीं , स्टीम्ड तौलिये से मेरी पीठ सेंकतीं थीं ....मेरा इतना ध्यान रखतीं थीं तो लगता था जैसे प्यार छलक छलक सा रहा हो । अँधा क्या मांगे दो आँखें ...बीमार तो शायद यही ढूंढ रहा होता है ।
मैंने बहुत सोचा कि मैं क्या अपने स्वार्थ के लिए रो रही हूँ ....नहीं मगर मैं तो तुम्हारी मुहब्बत के लिए रो रही थी । बीमारी में अगर किसी की मुहब्बत साथ हो तो सुबह का रँग कुछ और ही होता है । बीमारी जल्दी भाग जाती है । ऐसे ही पलों में मैंने लिखा ...
ऐ मुहब्बत मेरे साथ चलो
के तन्हा सफ़र कटता नहीं
दम घुटता है के
साहिल का पता मिलता नहीं
जगमगाते हुए इश्क के मन्जर
रूह को ऐसा भी घर मिलता नहीं
तुम जो आओ तो गुजर हो जाए
मेरे घर में मेरा पता मिलता नहीं
लू है या सर्द तन्हाई है
एक पत्ता भी कहीं हिलता नहीं
ऐ मुहब्बत मेरे साथ चलो
बुझे दिल में चराग जलता नहीं
तुम्हीं तो छोड़ गई हो यहाँ मुझको
ज़िन्दगी का निशाँ मिलता नहीं
लेटे लेटे मैंने तुम्हारी टेंथ के कोर्स की प्रेमचंद की लिखी हुई लघु कहानियों की किताब ' मानसरोवर ' भी पढ़ी , जिसे मैंने सालों साल सँभाल कर रखा था कि कभी वक्त मिलेगा तो पढूँगी और अब जब बिस्तर पर पडी हूँ तो पढ़ा ...इसके पहले ही पन्ने पर तुम्हारे हाथ से लिखा हुआ है ...प्रेम जीवन में सच्ची प्रसन्नता और विकास का कारण है ...Love ..the foundation of true progress and happiness.
ये कितना बड़ा सच है ...जिस कर्म की जड़ में स्वार्थ हो वो कभी सच्ची ख़ुशी नहीं देगा ...जिसकी नीँव में प्रेम हो वो स्वतः ही आनन्द का फल देगा ...बड़े बड़े कर्मों के पीछे प्रेरणा का स्त्रोत प्रेम ही होता है ।
एक और शिक्षा जो मैंने इस लम्बी बीमारी में पाई वो ये कि हर हालत पर कर्म से काबू पाने का मेरा विष्वास हिल सा गया है ; कर्म से भी कहीं ज्यादा महत्व-पूर्ण हमारा भाव होता है । अहसास पर नियंत्रण मामूली बात नहीं है , पर यही सब कुछ है . . अहसास ही राई को पहाड़ बना लेता है और अहसास ही पहाड़ को राई बना सकता है ..मैंने दिन भर में कभी दस मिनट से ज्यादा आराम नहीं किया था ..अब ये चौथा महीना है ...वही सूनी दीवारें है और छत पर टकटकी लगाए आँखें हैं । दिन तारीख कहने को सब बदलते हैं पर मेरे हालात नहीं बदलते । माँ कहतीं थीं कार्तिक में पैदा हुए बच्चों का दुःख चीढ़ा होता है , आसानी से पीछा ही नहीं छोड़ता । मैं जानती हूँ मेरे सारे घर को मुझे इस हालत में झेलना आसान नहीं रहा होगा .. ऐसे ही पलों में मैंने खुद को समझाते हुए लिखा ...
जब तुम मेरे पास आ रहीं थीं मन ने तुम्हारे लिए एक कविता लिख ली थी ।
तुमने देखी मन की महिमा कैसे ये कभी रोने लगता है तो कभी हँसने गाने लगता है । जानती हो भाव ही मेरी पूँजी है , जैसे ही मैं लिखती हूँ तो जैसे कोई बदली बरस कर चली जाती है और आसमान खिल उठता है , बस वैसे ही मैं भी हल्की हो उठती हूँ ।
असीम प्यार के साथ
तुम्हारी मम्मी
3-जून-2012
इस बार जब तुम कुछ दिन घर बिता कर वापिस जा रहीं थीं , मन बार बार भर आ रहा था । जब तुम मुझे कम्बल ओढ़ातीं थीं , मुझे लेटे रहने की हिदायतें देतीं थीं , स्टीम्ड तौलिये से मेरी पीठ सेंकतीं थीं ....मेरा इतना ध्यान रखतीं थीं तो लगता था जैसे प्यार छलक छलक सा रहा हो । अँधा क्या मांगे दो आँखें ...बीमार तो शायद यही ढूंढ रहा होता है ।
मैंने बहुत सोचा कि मैं क्या अपने स्वार्थ के लिए रो रही हूँ ....नहीं मगर मैं तो तुम्हारी मुहब्बत के लिए रो रही थी । बीमारी में अगर किसी की मुहब्बत साथ हो तो सुबह का रँग कुछ और ही होता है । बीमारी जल्दी भाग जाती है । ऐसे ही पलों में मैंने लिखा ...
ऐ मुहब्बत मेरे साथ चलो
के तन्हा सफ़र कटता नहीं
दम घुटता है के
साहिल का पता मिलता नहीं
जगमगाते हुए इश्क के मन्जर
रूह को ऐसा भी घर मिलता नहीं
तुम जो आओ तो गुजर हो जाए
मेरे घर में मेरा पता मिलता नहीं
लू है या सर्द तन्हाई है
एक पत्ता भी कहीं हिलता नहीं
ऐ मुहब्बत मेरे साथ चलो
बुझे दिल में चराग जलता नहीं
तुम्हीं तो छोड़ गई हो यहाँ मुझको
ज़िन्दगी का निशाँ मिलता नहीं
लेटे लेटे मैंने तुम्हारी टेंथ के कोर्स की प्रेमचंद की लिखी हुई लघु कहानियों की किताब ' मानसरोवर ' भी पढ़ी , जिसे मैंने सालों साल सँभाल कर रखा था कि कभी वक्त मिलेगा तो पढूँगी और अब जब बिस्तर पर पडी हूँ तो पढ़ा ...इसके पहले ही पन्ने पर तुम्हारे हाथ से लिखा हुआ है ...प्रेम जीवन में सच्ची प्रसन्नता और विकास का कारण है ...Love ..the foundation of true progress and happiness.
ये कितना बड़ा सच है ...जिस कर्म की जड़ में स्वार्थ हो वो कभी सच्ची ख़ुशी नहीं देगा ...जिसकी नीँव में प्रेम हो वो स्वतः ही आनन्द का फल देगा ...बड़े बड़े कर्मों के पीछे प्रेरणा का स्त्रोत प्रेम ही होता है ।
एक और शिक्षा जो मैंने इस लम्बी बीमारी में पाई वो ये कि हर हालत पर कर्म से काबू पाने का मेरा विष्वास हिल सा गया है ; कर्म से भी कहीं ज्यादा महत्व-पूर्ण हमारा भाव होता है । अहसास पर नियंत्रण मामूली बात नहीं है , पर यही सब कुछ है . . अहसास ही राई को पहाड़ बना लेता है और अहसास ही पहाड़ को राई बना सकता है ..मैंने दिन भर में कभी दस मिनट से ज्यादा आराम नहीं किया था ..अब ये चौथा महीना है ...वही सूनी दीवारें है और छत पर टकटकी लगाए आँखें हैं । दिन तारीख कहने को सब बदलते हैं पर मेरे हालात नहीं बदलते । माँ कहतीं थीं कार्तिक में पैदा हुए बच्चों का दुःख चीढ़ा होता है , आसानी से पीछा ही नहीं छोड़ता । मैं जानती हूँ मेरे सारे घर को मुझे इस हालत में झेलना आसान नहीं रहा होगा .. ऐसे ही पलों में मैंने खुद को समझाते हुए लिखा ...
हड्डी हड्डी टूट जुड़े
इन्सां का हौसला परवान चढ़े
दूर खुदा बैठा ये सोचे
किसके नाम का मन्तर ये
मेरे जैसा काम करे जब तुम मेरे पास आ रहीं थीं मन ने तुम्हारे लिए एक कविता लिख ली थी ।
मेरी सोन चिरैय्या
रँग में भी और ढँग में भी
भीतर भी और बाहर भी
उजली उजली प्यारी प्यारी
मेरी नेह की छैयाँ
आ बैठी घर की मुंडेर पर
यादों के रँग बिखेर लिए
धरती नाची , अम्बर नाचा
ता ता थैय्या , ता ता थैय्या
तेरी जीत पे सारा घर नाचा
मेरी सोन चिरैय्या
अम्बर की बाहें बुलाती लगें
तू पँख फैलाये गाती लगे
मन्द हवाएं छू आयें तुझे
धीरे से मुझे सहलातीं लगें
धूप सुनहरी आती लगे
मेरी सोन चिरैय्या
तुमने देखी मन की महिमा कैसे ये कभी रोने लगता है तो कभी हँसने गाने लगता है । जानती हो भाव ही मेरी पूँजी है , जैसे ही मैं लिखती हूँ तो जैसे कोई बदली बरस कर चली जाती है और आसमान खिल उठता है , बस वैसे ही मैं भी हल्की हो उठती हूँ ।
असीम प्यार के साथ
तुम्हारी मम्मी
3-जून-2012
नारी-जीवन के सच को मुखर करती सुन्दर अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील रचना आभार
जवाब देंहटाएंमाँ बेटी का रिश्ता , पिता से हमेश बढ़ा ह़ी रहा है. माँ जननी माँ क़ि ममता माँ का आचंल हमेशा उंचा रहा है. बेटी तो बंश है दो किनारों क़ि मर्यादा स्रष्टि क़ि संचालिका है. संतोष गंगेले प्रेस क्लब अध्यक्ष नौगाव जिला छतरपुर
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